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रविवार, 28 फ़रवरी 2010

आवरण

निजता को मैंने अपने कृतित्व की
ओट में छिपाया है
तुम्हारी तरह - रेशमी धागों का आवरण
इर्द गिर्द अपने बुना है बनाया है।
यह बिल्कुल सच है
कि यह आवरण मेरा सुरक्षा कवच है
मुझतक जो आता है ,
पहले इससे टकराता है ,
उलझता है और मुझ तक पँहुच नहीं पाता है
किन्तु एक दिन - स्वयं इसे काटकर
छिन्न भिन्न कर इसे मैं उड़ जाऊँगा
पारदर्शी पंखों पर सुदूर कहीं शून्य में !
जिन्दा रहेंगे किन्तु प्राण रहेगा शेष,
यहाँ वहाँ ,इधर उधर
भागे -भागे फिरेँगे, त्यागे ये धागे अभागे
हवाओँ मेँ तिरेँगे।
उलझेंगे,अटकेँगे
पेड़ों पर झण्डोँ से
बिजली के तारों से,
बाँसोँ सरकण्डोँ से ,
झगड़ालू झाड़ोँ की अंतहीन बहसोँ से,
मेँहदी से सरसोँ से,
उच्चता से ताड़ोँ की शायद 
अनदेखे ही रह जायेँ,
उन तक न पँहुच पायेँ।
स्रजनतत्परा,सगर्भा कोई चिड़िया
शायद कभी पा जाए इनमे से कुछ धागे
उन्हे अपने नीड़ का हिस्सा बनाले,
कुछ सच्चा कुछ झूठा
बच्चों के लिए कोई मेरा भी शायद एक किस्सा बनाले।
 

धूप आ , धूप आ

धूप आ
धूप आ
बादल से कूद आ
पर्वत फलाँग आ
कोहरे को टाँग आ
नदी ताल पार कर
फुँनगियोँ पे मत ठहर
घने पेड़ छोड़ आ
घास घास दौड़ आ

मुझे फिर रंग दे
नया एक ढंग दे

डाल मुझे झुक कर
धूल से उठा ले
मेरा मुँह पोँछ दे
गोद मेँ बिठा ले
ममता के रूप आ
धूप आ
धूप आ

शुक्रवार, 19 फ़रवरी 2010

वह रूप तज़ल्ली मेँ.....

वह रूप तज़ल्ली मेँ
दिख कर छुपा न होता 
यह दर्द मुहब्बत का 
हमको अता न होता।
 

उसकी ज़िया के आगे 
आँखे न झपक जातीँ 
कोई मैकशी न होती
कोई मैकदा न होता। 

अच्छा तो यही होता
आँखेँ ही फूट जातीँ
यह शौके -दीद अपना
कुफ्रो -ख़ता न होता।

इस दर्द को छोड़ो जी
गर तुम न मिले होते
पहलू मेँ कोई दिल है
यह भी पता न होता।

फितरत मेँ गर न होती
आवारगी जहाँ की
कोई नक्शे -पा न बनता
कोई रास्ता न होता।

सलाम

बुधवार, 17 फ़रवरी 2010

मुक्त मन



मुक्त मन
एक गरुड़ होता है।
प्रलम्बित पंख
अपने तान
वह उड़ता नहीँ
आरूढ़ होता है
उड़ानोँ पर
तनी वल्गाओँ से
क्षिप्रता को थाम।
आकाश उसके सामने
आता नहीँ
दूर हटकर
मार्ग देता है
दिशायेँ एक हो जातीँ
काल कवलित काल
होता है।
वो जब उड़ता है
पीछे छोड़ता जाता
आलोक -नद -उद्दाम
हहराता
जो मुझको तोड़ देता
फोड़ देता
चूर कर देता
समूची अस्मिता को
लील जाता है।

'शब'


शब से कोई उम्मीद
क्या रखना
टूटती है
तो टूट जाने दो
दामने -शब का
आखिरी कोना
छूटता है तो
छूट जाने दो।

आखिर यह तुमको
और क्या देगी
बहुत हुआ तो ख़्वाब
दे देगी।

जिसमेँ बदकार
तमन्नाओँ के
बरहना और गुदाज़
तन होँगे
जिनके कज्जाख़
इरादोँ मेँ छुपे
तेरी सुबहोँ के
राहज़न होँगे।

दबोच लेँगे ये
उगते हुए
सूरज को वहीँ
तोड़ कर रौशनी
बहा देँगे
उजले उजले तेरे
मासूम उफ़क
अपने ही ख़ून मेँ
नहा लेँगे।

तब भी क्या सुर्ख़
न होगा ये फ़लक
और हवाएँ न गर्म
होँगी क्या ?
तब भी क्या अपनी
माँदगी पे तुझे
कुछ न होगा तो शर्म
होगी क्या ?

ख़्वाब मत देख
अपने बाजू देख
सदियोँ से जो
झुका है एक तरफ
तिरछे इंसाफ का
तराजू देख।

उस बर्कपा के साथ/ 'मिसिर'


लो, रास्ता इक अंधा
मोड़ और मुड़ गया,
इस फ़ासले मेँ यह
घुमाव और जुड़ गया।


हम तेजरौ थे चाँद से
आगे निकल गए,
जल्दी मेँ हमसे अपना
ही साया बिछुड़ गया।


हमने तो ये समझा कि
जलवे मिरे लिए हैँ,
जब हाथ बढ़ाया तो
गिरेबाँ सिकुड़ गया।


सोहबत ने मेरी उसको
ख़िरदवर बना दिया,
जब बालो -पर मिले तो
कहीँ और उड़ गया।


दौड़े तो बहुत तेज थे
उस बर्कपा के साथ,
कुछ दूर चलके पाँव का
दम ही निचुड़ गया।


तेजरौ -तेज चलने वाला
गिरेबाँ -दामन
ख़िरदवर - अक्लमंद
बालो -पर- सामर्थ्य
बर्कपा -जो बिजली
जैसा तेज चलता हो