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गुरुवार, 24 जून 2010

समझना और अब क्या





समझना और अब क्या कोई समझी बात क्या समझे,
हम उनको देखो क्या समझे थे और वो हमको क्या समझे !


तेरी सीटी पे आखिर अब वो खिड़की क्यों नहीं खुलती,
बड़े नादां 'मिसिर' हो तुम तगाफुल को हया समझे !



मेरी भोली सी सूरत उसने क्या से क्या बना डाली ,
गज़ब हमने किया जो नुक्ताचीं को आइना समझे !



उन्हें खुद के संवरने से नहीं फुर्सत मिली अब तक ,
क्या देखें ग़ज़ल मेरी क्या वो अंदाज़े-बयां समझे !



न बरसे अब्र अब तक ज़िंदगी की शाम हो आयी ,
हम इन सूखी घटाओं को हवाओं की जफा समझे !

शनिवार, 5 जून 2010

जीवित प्रार्थना बनकर



पर्वत शिखरोँ पर जमीँ
प्रस्तरीभूत हिम-सा मैँ
तुमसे अभिभूत -
ओ ! सौन्दर्य सिन्धु,
अपनी प्रार्थनाओँ के
ताप से पिघल कर
आकर्षण की ढलानोँ पर
बहा हूँ
दौड़ता, कभी -
ठिठकता ठहरता,
स्वयं मेँ चक्कर खाता,
और पुनः वेग पाकर
बह निकलता,
नुकीले आलोचक
पत्थरोँ को गोल करता,
तट के वृक्षोँ को सीँचता,
जल- जन्तुओँ को
आश्रय देता,
तुम्हारी ओर एक जीवित
प्रार्थना बनकर बहा हूँ।
इन प्रार्थनाओँ को
सूखने मत देना,कि-
मैँ तुम्हारी सतह पर
आनन्द-नर्तन करती
एक हिलोर -सा
तेरा ही खेल खेल सकूँ
तुझसे ही
तुझमेँ ही...
......