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बुधवार, 18 अगस्त 2010

सुबह का ख़्वाब

सुबह का ख़्वाब,
वो भी प्रीतम का,
तन और मन जैसे,
चिपक गए होँ कसके,
देखो कितनी,
लाल हो गई है सुबह,
खीँच कर छुड़ाने मेँ,
अब दिन भर,
खिँचे खिचे रहेँगे दोनोँ,
कहीँ अटके अटके,
पुरानी यादों  के,
कमरे मेँ,
मैले भारी परदोँ जैसे,
उदास हिलते रहेँगे,
लटके लटके।.