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शनिवार, 2 अक्तूबर 2010

यही जोड़-तोड़






छोटे छोटे धागों के टुकड़े ,
उलझ भी जाएँ तो -
एक एक खींच लो या
जमीन पर पटक दो,
खुल के बिखर जायेंगे !

लम्बे लम्बे धागे यदि
आपस में उलझ जाएँ -
सुलझाना मुश्किल है !

उलझे इस ज़माने की
लम्बी-लम्बी बातें भी
बहुत बहुत उलझी हैं,
जितना भी सुलझाओ
और उलझ जातीं हैं !

थक-हार हम
इस उलझन से झुंझलाकर,
तोड़ तोड़ धागों को
अलग कर डालते हैं ,
और यह समझते हैं-
विश्लेषण कर लिया ,
बात सब समझ ली !

लेकिन इस बीच
यह जाते हैं भूल कि -
कौन- सा टुकड़ा किस धागे से तोड़ा था
कौन- सी बात किस बात का हिस्सा है !

अब नयी उलझन कि -
किन- किन हिस्सों को आपस में जोड़ दें ,
कहीं फिर झुंझलाकर और भी न तोड़ दें ,
या कि इन्हें घबराकर ऊबें और छोड़ दें !

लेकिन हमने धीरज से काम लिया-
कौन जान पायेगा ?
किसी को किसी में जैसे-तैसे जोड़ दिया,
रील एक बना ली ,
अब मैं बुद्धिमान, प्रतिभा का धनीहूँ,
ए! ज़रा सुनों तनिक,
दुनियाँ को समझोगे ?
देखो, मैं दार्शनिक !

मेरे जैसे जाने कितने
और भी हैं रील वाले,
रोशन चराग हैं रुपहली कंदील वाले ,
उनके अपने फंडे हैं ,
उनके अपने झण्डे हैं ,
विरोधियों के वास्ते-
छुपे आस्तीनों में
मूठ लगे डंडे हैं ,
आपस में जिनके
लगी बड़ी होड़ है ,
और मैं ये सोंचता हूँ ,
ज़िंदगी !!
क्या तेरा नाम बस
है यही जोड़-तोड़
 ?