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बुधवार, 28 सितंबर 2011

तीन कवितायेँ




१.
उस नारी-देह से
अपने मतलब के हिस्से
घर उठा लाया था,
सिर और पैर
बाहर ही छोड़ आया था !
सिर की जगह एक खाली डिब्बा
और पैरों की जगह पहिये लगाने के बाद
मुझे लगा कि
अब मैं चैन से रह सकता हूँ !
लेकिन गाहे-ब-गाहे सिर की ताक-झाँक ने
मेरी चिंता बढ़ा दी
अक्सर पैर चहारदीवारी से
लटके मिलते !
मैंने खिडकियाँ बंद कर दीं और-
चहारदीवारी ऊँची कर दी !
इस बीच उस नारी-देह ने
एक बच्ची को जन्म दिया,
मैंने देखा
उसके दो सिर और चार पैर थे ! 
२.
ओ माँ ,
ओ बहन ,
ओ बेटी ,
माल की बिक्री बढ़ाने के लिए
विज्ञापनों में
पहले तुम्हारा सलोना चेहरा,
रसीले होंठ ,
आमंत्रण देती आँखें लगाईं ,
फिर अधखुला वक्ष, जांघें ,नितंब ........
अब और क्या लगाऊँ ?
आज-कल धंधा
फिर मंदा है !
३.
हाँ !
सुख चाहा था मैंने
मगर ऐसे तो नहीं कि --
तुम उसे मुझ में ठूँस दो
या पटक कर चले जाओ !


मंगलवार, 27 सितंबर 2011

मुड़ो न नदी !


तनिक मुड़ो न नदी !
मुझसे होकर बहो 
पत्थर हूँ , मगर मुझमें भी 
एक नदी सोयी पडी है 
बेचैन, 
जब करवट बदलती है 
हिलुरती रहती है देर तक ,
हिलता हुआ पानी 
कुहनी -सी मारता है 
जाने क्या करने को 
उकसाता है ,
तुम इसकी सहजात हो 
इसके मन की जानना 
तुम्हे सहज होगा ,
तनिक इससे जुडो न नदी 
मुड़ो न !

मंगलवार, 20 सितंबर 2011

पीली-सी चाँदनी

पी ली थी
पीली-सी चाँदनी !
एक घूँट
धूप के धोखे
आज तक धरने पे बैठा है चाँद
... ... आँखों की देहरी !
चाँदनी के बदले
कवितायेँ देता हूँ
वह बिन-देखे ही दूर फेंक देता है ,
कितना भरेगा यह
आसमान
तारों से ?

गुलदान ,

रंगीन काँच का नाज़ुक-सा गुलदान ,
जो तुम यहाँ
मेरे सपनों के ऊपर रख गयी थीं
टूटने के डर से
मैंने उसे हाथ नहीं लगाया ,
न ही किसी सपने को
उसके नीचे से खींचा !
फिर एक दिन तुमने ही आकर
उसे तोड़ दिया ,
मैंने फिर भी
उसे हाथ नहीं लगाया
बस अपने सपने
उसके टुकड़ों पर रख दिए !

मंगलवार, 6 सितंबर 2011

अफसर आलोचक : दोमुँही अभिव्यक्ति ----शरद जोशी


अफसर कहता है - 'सर मुझे गवर्नमेंट को यह रिपोर्ट करते हुए खुशी है कि कविता के मामले में दो साल पहले से शुरू की गई नीतियाँ इस आलोच्य वर्ष में भी कामयाब रहीं हैं ! काफी सारे कवि जिनमे बूढ़े और नौजवान सभी शामिल हैं ,अपने संकलन छपवाने ,बिकवाने, इनाम-इकराम पाने और हमारे पब्लिकेशन्स और हमारे द्वारा आयोजित मीटिंगों में उस पर चर्चा करवाने की कोशिश में हमारे इर्द-गिर्द एक किस्म के कम्पटीशन की इस्पिरिट में जमा हैं और उनमें वह एंटी गवर्नमेंट असर धीरे-धीरे दूर हो रहा है !'
 
आलोचक कहता है -'इधर जो कविता संकलन आए हैं उनमें  किसी एकनिष्ठ दृष्टि या मुहावरे का आतंक नहीं  है ! दृश्य का इकहरापन समाप्त है ! काव्य-दृश्य पर बुजुर्ग कवि ,मानदंड न रख कर एक सहज और सर्जनात्मक तनाव भरे सह-अस्तित्व में युवाओं के साथ हैं !अकस्मात् आई इस तात्कालिकता में अनिच्छा या अन्यमनस्कता न होकर सह-अस्तित्व के प्रति उत्साह है ! अपने अनुभव और कर्म के फलितार्थों के प्रति आज कवि चेतना अधिक सजग है !
 
अफसर कहता है -सर,चूंकि सभी कवि इस कोशिश में हैं कि उनके ज्यादा -से-ज्यादा संकलन छपें और गवर्नमेंट द्वारा खरीदे जाएँ  ,इसलिए अब वे उन विचारधाराओं पर जोर नहीं देते जो इतने वर्षों गवर्नमेंट के खिलाफ जारी रही हैं  ! अब वे विचारों के बजाय कविता पर ही ध्यान देते हैं और ऐसे विषयों पर लिखते हैं जो हम पसंद करें जैसे- बैल,सूरज,तालाब,लड़की या पेड़ वगैरह ! गवर्नमेंट के खिलाफ पड़ने वाली विचारधाराओं से उनकी उम्मीदें टूटी है ,यह साफ जाहिर हो रहा है , नौजवान कवियों में खास तौर से अब वे बयानबाजी नहीं करते !
 
आलोचक कहता है -आज काव्य-दृश्य विचारधारा को लेकर किसी बड़बोलेपन और छद्म आशावादिता से मुक्त है ! विचारधारा और उससे पाए गए निष्कर्ष कविता का लक्ष्य नहीं हैं ! कविता विचारों  का अनुवाद या उसका अनुगमन नहीं है ! विचारधारा के व्यवस्थित उद्यानों में चैन और राहत पाने की सरलता से विशेषकर युवा कवियों ने छुटकारा पा लिया है ! अब उसे हर अगले मोड़ पर क्रांति नहीं दिखाई देती और किसी तरह के अतिरिक्त आशावाद से वह मुक्त है ! पिछले वर्षों की वक्तव्य-प्रियता से कवि ने मुक्ति पा ली है ! अब वह बखान करती है बयान नहीं देती !
 
अफसर कहता है -सर, जैसी हमारी पालिसी रही है ,हम चाहते हैं कि हमारे राज्य के कवि ,अखबारों में छपने वाली खबरों ,विरोधियों के भाषणों वगैरह के असर में न आ फकत कवि  बने रहें और कविता लिखते रहें ! यह बात हमने काफी साफ तौर पर अपने पब्लिकेशन्स में जाहिर भी कर दी है ! उन्हें बता दिया है कि ऐसी कोशिशों के नतीजे अच्छे नहीं होंगे ! मुझे यह रिपोर्ट करते हुए खुशी है कि आलोच्य वर्ष में कवियों ने इस बात को समझ अपनी नीतियों में फर्क किया है !
 
आलोचक कहता है -चीजों पर फैसला देने का काम जरूरी नहीं है यह बात कवि अच्छी तरह जान गया है ! दुनियाँ कवि के बयान देने या फैसला आयद करने लिए नहीं है ! इधर जो कवितायेँ आई हैं उनसे लग रहा है कि कवि अब यह पहचान रहा है कि हमारे समाज की जो सामाजिक-आर्थिक संरचना है ,उससे हर तरह का काम लेना संभव नहीं है ! कविता का प्रभाव अंततः सीमित है और अखबार ,भाषण,राजनैतिक विश्लेषण का काम अलग है और कविता से इन सबका काम करने की उम्मीद करना व्यर्थ है ! ऐसी कोशिशों  के नतीजे कभी अच्छे नहीं निकले ! नागरिक जीवन के दैन्य ,संघर्षों या राजनैतिक कार्यवाही पर ध्यानाकर्षण करने या उसकी कमियों को उभारने  के लिए कविता को इस्तेमाल करने की  चतुराई से कवि उबर गया है !
 
 अफसर कहताहै -सर,आलोच्य वर्ष तथा पिछले दो-तीन सालों में हमारी पालिसी की सफलता को नजर में रखते हुए यह जरूरी  होगा कि हम इस काम को आगे बढ़ाएं और इसके लिए बजट में इजाफा जितना जरूरी है, किया जाय ! आज हम इस पोजीशन में आ गए हैं कि हम जिसे मानेंगे ,वह कवि होगा और हमारी निगाह में गलत कवियों को हम नकार सकते हैं !
 
आलोचक कहता है-हमें ऐसी कविता से चिढ है जो किसी दिशा विशेष में ले जाने के लिए चीख-पुकार मचाती हो ! निष्ठां या पीड़ा के आधार पर रियायतों का जमाना गया !कवि के गले में विचारधारा का पट्टा  नहीं होना चाहिए ! हम उसी कवि को सुनने और गुनने को विवश  हैं जिसकी आवाज हमें पहचानी लगती हो ! हम यह मानते हैं कि कविता एक बनाई  हुई वस्तु है इसलिए शिल्प के प्रति सजगता जरूरी है ! काव्यानुशासन का पुनर्वास उल्लेखनीय विशेषता मानी जाएगी ! हम यह मानते हैं कि कविता  के सुखी और प्रसन्न रहने से उसकी मानवीय शक्ति और ऊष्मा में इजाफा होता है ! रोने वाले रोते रहें पर हम इन्हीं धारणाओं को लेकर अपना रथ जोते रहेंगे अर्थात अपनी फिएट चलाते रहेंगे ,जिसे खतरा लगता हो हमसे उसकी हिम्मत हो तो सामने आए ! यह न भूलें कि हम क्या हैं ,किस पद पर  हैं !