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शुक्रवार, 30 दिसंबर 2011



आज प्रसिद्ध अर्थशास्त्री गिरीश मिश्र का जन्मदिन है। इस मौके पर उनका एक लेख पढ़ें-




आरंभ से ही पूंजीवाद की प्रवृत्ति हर चीज-मूर्त हो या अमूर्त- को माल यानी खरीद-फरोख्त की वस्तु बनाने की रही है। - गिरीश मिश्र




जब से नवउदारवादी चिंतन का वर्चस्व बढ़ा है तब से इस प्रवृत्ति ने काफी जोर पकड़ा है। भारत में ही अगर आप अपने इर्द-गिर्द देखें तो पाएंगे कि शिक्षा, स्वास्थ्य, पानी आदि जिन्हें अब तक नि:शुल्क माना जाता था बाजार के दायरे में तेजी से ढकेले जा रहे हैं। दिल्ली जैसे शहर में पानी के सार्वजनिक नल विदा हो चुके हैं। इतना ही नहीं, यदि अगर आप सुबह-शाम टहलना और व्यायाम करना चाहें तो सार्वजनिक पार्कों की किल्लत है। पुराने पार्क तो नि:शुल्क हैं परंतु नवनिर्मित पार्क स्पोर्ट्स काम्पलेक्स में तब्दील कर दिए गए हैं जिनमें प्रवेश मुफ्त नहीं रह गया। आज से दस-पन्द्रह वर्ष पहले लोगों को सुबह-शाम सैर की मुफ्त इजाजत थी, जो अब नहीं रह गई है।

दिल्ली में बिजली, पानी, शिक्षा और स्वास्थ्य सेवाओं का तेजी से निजीकरण किया गया है। यदि आपके पास पैसे हैं तो आपके बच्चों को अच्छी शिक्षा मिलेगी और आपको स्वास्थ्य सेवाएं, अन्यथा सरकारी स्कूलों और अस्पतालों में जाइए जहां गुणवत्ता और कार्यकुशलता का सर्वथा अभाव है। अगर अपने वाहन अच्छी नवनिर्मित सड़कों पर लेकर जाना चाहते हैं तो शुल्क दीजिए। अगर आप सुरक्षा चाहते हैं तो निजी कंपनियों से, पैसे देकर, प्रहरी मंगाइए क्योंकि सरकारी सुरक्षा व्यवस्था अपर्याप्त है और जो है भी उसे महत्वपूर्ण व्यक्तियों की सुरक्षा तथा अन्य कामों में लगा दिया गया है। अगर सार्वजनिक जल व्यवस्था अपर्याप्त है तो निजी कंपनियों से पानी खरीदिए।

यह अनायास नहीं है कि शिक्षा के क्षेत्र में लगातार नए-नए संस्थान और विश्वविद्यालय खोल पैसे बटोरने की होड़ निजी क्षेत्र में मची है। प्रिंट मीडिया हो या इलेक्ट्रॉनिक, निजी पूंजी हावी है और उसका उद्देश्य मुख्य रूप से पैसे कमाना है। समाचारों की गुणवत्ता और सत्यता उसके लिए कोई महत्व नहीं रखती। सनसनी फैलाने वाले कार्यक्रमों से दर्शकों को आकर्षित करना और फिर विज्ञापनों की भरमार द्वारा पैसे बटोरना एकमात्र उद्देश्य है। यह अनायास नहीं है कि चर्चा का नाम पर होने वाले अधिकतर टीवी कार्यक्रमों में अज्ञानियों और दंभियों की भरमार होती है। उनको देखकर आर्थर कोएश्लर के प्रसिध्द उपन्यास 'द कॉलगर्ल्स' की याद बरबस हो आती है। इतना ही नहीं, हमारे निजी समाचार चैनलों की मानें तो भारत में पूर्वोत्तर, उड़ीसा, झारखण्ड आदि राज्यों का अस्तित्व नाममात्र है। गांवों में बसने वाले महत्वहीन हैं। समाचार मुख्यतया क्रिकेट बॉलीवुड की कतिपय राजनेताओं तक सीमित होते हैं। विश्व समाचार की दृष्टि से पाकिस्तान, अमेरिका, चीन और यूरोप के कतिपय देशों के अलावे बाकी सब बेमानी हैं। नेपाल, बर्मा, भूटान, बांग्लादेश, श्रीलंका आदि की ओर शायद ही कभी ध्यान दिया जाता था।

जब इलेक्ट्रॉनिक मीडिया का निजीकरण नहीं हुआ था तब दूरदर्शन और आकाशवाणी पर तरह-तरह के आरोप लगते थे। कहा जाता है कि समाचार देने और कार्यक्रमों को प्रस्तुत करने में सत्ताधारी दलों को महत्व दिया जाता है। आजकल निजीकरण के बाद समाचारों और कार्यक्रमों का कोई स्तर नहीं रह गया है। कई बार लगता है कि समाचार और उनसे बने विश्लेषण गप्प-शप्प हैं। मनोरंजन के नाम पर घटिया कार्यक्रम पेश किए जाते हैं। शास्त्रीय संगीत और नृत्य, उच्च कोटि के नाटक और गुणवत्ता वाले विचार-विमर्श कब के लापता हो गए हैं। तंत्र-मंत्र, देवी-देवता, नाग-नागिन फलित ज्योतिष आदि के जरिए अंधविश्वास फैलाने में कोई हिचकिचाहट नहीं दिखलाई जाती। यह सब कुछ हमारे लिए भले ही नया हो मगर पश्चिमी देशों में द्वितीय विश्वयुध्द के बाद वह प्रकट होने लगा था। कहां इस परिघटना को समझने की कोशिश कई चिंतकों ने की जिनमें थियोडोर डब्लू. अडोर्नो (11 सितम्बर 1903- 6 अगस्त 1969) अग्रणी थे। जर्मनी में जन्मे अडोर्नो फ्रैंकफर्ट विचारधारा से जुड़े थे और हिटलर के उदय के बाद अमेरिका आ गए थे। उनके अनुसार पूंजी का उद्देश्य समाज को पूरी तरह एक सूत्रबध्द कर अपने अधीन लाना है इसलिए वह चाहती है कि मतभेद मिटें और आलोचना की क्षमता तथा नजरिया खत्म हो। उनके अनुसार यह कार्य 'संस्कृति उद्योग' के माध्यम से हो सकता है।

उनका मानना था कि 'संस्कृति उद्योग' शब्द का इस्तेमाल 'जनसमूह की संस्कृति' के बदले होना चाहिए क्योंकि अवरोक्त शब्द के अंतर्गत जनसमूह द्वारा अपनी आवश्यकताओं को देखते हुए अपने आप अपनाई गई संस्कृति का भाव है। इसके विपरीत 'संस्कृति उद्योग' कृत्रिम आवश्यकताओं को जन्म देता है। तत्काल 'संस्कृति उद्योग' का वर्चस्व है।

'संस्कृति उद्योग' खरीद-फरोख्त की वस्तुओं की तरह ही सांस्कृतिक कार्यक्रमों का निर्माण कर उनका विपणन एवं वितरण करता है। कमोबेश ये सारे फार्मूले के आधार पर बनाए जाते हैं। इसलिए उनमें विविधता और मौलिकता का अभाव होता है। यह बात हम अपने देश के टीवी चैनलों पर दिखाए जाने वाले कार्यक्रमों को देखकर समझ सकते हैं। 'संस्कृति उद्योग' अपने दर्शकों को इस मुगालते में रखने की कोशिश करता है कि वह अनूठे कार्यक्रम पेश कर रहा है। वस्तुत: वह कोई जोखिम न उठा ऐसे कार्यक्रम पेश करता है। 'संस्कृति उद्योग' को हम कला के समतुल्य नहीं रख सकते जहां कलाकार की कोशिश कुछ न कुछ अनूठापन अपनी कृतियों में लाने की होती है जबकि अतिधकतर फिल्में, संगीत और टेलीविजन के कार्यक्रम आज तयशुदा फॉर्मूले के आधार पर बनाए और परोसे जाते हैं। पुरजोर कोशिश रहती है कि इनके उपभोक्ता अस्थायी रूप से ही नहीं, उनके प्रति मोहित हो और साथ में चल रही विज्ञापनों की बमबारी को खुशी-खुशी झेलें। उपभोक्ता कार्यक्रमों में कृत्रिम टकरावों के सृजन और उनके निपटारे तथा बहादुर नायकों की सफलताओं तथा दु:साहसिक कृत्यों पर ताली बजाते नहीं थकें।

आज 'संस्कृति उद्योग' का जन भावनाओं और जन समस्याओं से कुछ विशेष लेना-देना नहीं रह गया है। पहले के रंगमंच और चलचित्रों का वास्ता जनता की समस्याओं तथा अन्याय के प्रति विरोध से था। याद करें आजादी की लड़ाई से लेकर 1980 के दशक तक बने और दिखाए गए कार्यक्रमों, चलचित्रों और गानों को तथा उनकी तुलना करें वर्तमान समय में दिखाए जाने वाले कार्यक्रमों से तो बदलाव समझ में आ जाएगा। पुराने कार्यक्रम जनता को अपने अस्तित्व की लड़ाई के विभिन्न आयामों का अहसास कराते थे परंतु अब 'संस्कृति उद्योग' का उद्देश्य इस लड़ाई को ढंकना है। जनता को वर्तमान सामाजिक-आर्थिक व्यवस्था के अनुरूप अपने को ढालने तथा हालात से समझौता करने के लिए प्रेरित किया जाता है। टेलीविजन कार्यक्रमों के जरिए देवी-देवताओं विशेषकर बाप्पा, बजरंगबली, भोलेनाथ आदि, गुरुओं-बाबाओं, अम्माओं, योेगीराजों-तांत्रिकों आदि की शरण में जाने के लिए उकसाया जाता है। वस्तुत: जनचेतना की आंख मूंदकर अनुसरण का पर्याय बनाने की कोशिश की जाती है। इस प्रकार अडोर्नो का मानना है कि 'संस्कृति उद्योग' के उत्पादों के उपभोक्ताओं के दिलोदिमाग पर यह बैठाने की कोशिश की जाती है कि वर्तमान समाज एक सकारात्मक एवं ईश्वर निर्मित व्यवस्था है। उसमें बदलाव उसके सर्जक की इच्छा से ही होंगे। वहां व्याप्त कठिनाइयों और विपन्नताओं को खुशी-खुशी सहने तथा संतुष्ट रहने की क्षमता विकसित करने की आवश्यकता है।

'संस्कृति उद्योग' पुरानी मान्यताओं और अवधारणाओं को वर्तमान परिस्थितियों के अनुकूल बनाकर पेश करता है जिसमें वे संस्कृति के बाजार में चल सकें तथा नए उपभोक्ता उन्हें खरीद सकें। कहना न होगा कि यह सब कुछ सुनियोजित ढंग से होता है। वह सब प्रकार के उपभोक्ताओं को एक सूत्रबध्द करने का प्रयास करता है।

वह अपने असंख्य लक्षित उपभोक्ताओं की मनोदशा और रूझान का अध्ययन कर अपने द्वारा तय दिशा में मोड़ना चाहता है। उन्हें वह पूंजीवादी व्यवस्था के साथ नत्थी करने का प्रयास करता है। कहना न होगा कि उपभोक्ता को राजा कहना तथा उसकी पसंद-नापसंद को 'क्या उत्पन्न करें?' का आधार बनाना वास्तविकता से मीलों दूर होता है।

अन्य मालों की तरह 'संस्कृति उद्योग' के उत्पादों को बेचकर उनमें निहित मूल्य को प्राप्त करना सर्वोच्च प्राथमिकता होती है न कि उनके सार तत्व को जनोनुकूल बनाना। अडोर्नो के शब्दों में 'संस्कृति उद्योग' का मुख्य उद्देश्य मुनाफे की भावना को नग्न रूप में उसके उत्पादों में सन्निहित करना होता है।

'संस्कृति उद्योग' उसमें कार्यरत बुध्दिजीवियों और कलाकारों के साथ ही अपने उपभोक्ताओं की चेतना को कुंदकर देता है। वे लुभावने प्रतिफल के लालच के वशीभूत हो बंधुआ मजदूर बन जाते हैं और स्वामियों के इशारे पर नाचने लगते हैं। वे प्लेटो के इस कथन को भुला देते हैं कि जो वस्तुगत और तात्विक रूप से सही नहीं है। वह मनुष्यों के लिए लाभकारी नहीं हो सकता। स्पष्ट है कि 'संस्कृति उद्योग' द्वारा परोसे जाने वाले मनगढ़ंत कार्यक्रम न जीवन को आनंदमय बना सकते हैं और न ही लोगों को नैतिक रूप से जिम्मेदार बना सकते हैं। वे समाज पर पूंजीपतियों के दबदबे को सुदृढ़ करने में सहायक होते हैं। वे प्रौढों को भी बचकाना बनाने की कोशिश करते हैं। सोचने की बात है कि 'संस्कृति उद्योग' को शोषकों, उत्पीड़कों और मुनाफाखोरों के हाथों से कैसे मुक्त करा जनसंस्कृति बनाया जाए।

शुक्रवार, 23 दिसंबर 2011

धब्बे और खराशें















जो सूरज तुम हमें थमा गए थे

कलई उतार दी है उसकी परिमार्जकों ने ,

धो दिया है तेज़ाब से ,

काले-काले धब्बों ,गहरी ख़राशों से

भर गया है उसका उजला मुँह !




रोशनी देता है अब भी

मगर धब्बों और ख़राशों की

स्याह छाया भी प्रक्षिप्त करता है !




चीजें अब

कटी-पिटी,अधूरी दीखती हैं ,

हमेशा पहचाननें में गलती हो जाती है !




हर जगह और हर चीज में

धब्बे और खराशें भर गयी है !