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सोमवार, 16 अप्रैल 2012

छवियाँ ही छवियाँ हैं


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तुमने मेरी एक छवि बनाई है ,और -
मैंने तुम्हारी !

हम-तुम जब मिलते हैं ,
हम नहीं मिलते हैं 
हमारी छवियाँ मिलती हैं !

छवियों के पैरों में
हमारे भरोसे के जूते हैं ,
और हम नंगे पाँव
इसलिए जब हम चलते हैं एक कदम
तो वे चलती हैं दो कदम !

देखते सुनते खड़े रह जाते हम
खिसियाए ,हाथ मलते हुए
उनका लपक कर मिलना और
दाँव -पेंच भरी हासयुक्त बतकही !

मन की सँकरी गली में
हमारे-तुम्हारे बीच अड़ी हैं
छवियाँ खड़ी हैं
ऐसी ही अनगिनत मन की
संकीर्ण गलियों में
छवियाँ ही छवियाँ है
पूरे शहर में
छवियों की भीड़ में
हम-तुम कहीं नहीं !!

आओ हम सहमत हों -
संकीर्णताओं से बाहर निकलें
खुली जगह में
मारते हुए छवियों को धक्का
बगल से निकल जाएँ
गले में बाहें डाल
हँसते हुए उन पर
छोड़ दें उन्हें
उन्हीं सँकरी गलियो में
और आगे बढ़ जाएँ !

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