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मंगलवार, 27 अप्रैल 2010

तुम्हारे ही रंगोँ ने


तुम्हारी विशेषताएँ ही
तुम्हारी सीमाएँ
बन गई हैँ।


तुम्हारे ही रंगोँ ने
घेर रखा है
तुम्हारा आकाश,


और तुम्हारी गोल-गोल
चक्करदार उड़ानोँ ने
तुम्हारे
पर कतर दिए हैँ।


जबकि तुम
ओ,ज़िन्दगी!
बहती ही इसलिए हो
कि तुम
किनारोँ के बीच
रहना नहीँ चाहती।


जब जब किनारोँ ने
तुम्हेँ दबाया है
तुमने अपना वजूद
उनसे टकराया है


अक्सर ही तुमने उन्हेँ
अपनी आलोचनाओँ से
काटा है कुतरा है,
अपनी सहायक नदियोँ  का
 समर्थन-जल पाकर
जब जब तुम बढ़ी हो
तुमने उन्हेँ तोड़ा है
या जब तुम
क्षीण हुई हो
उनसे मुँह मोड़ा है
उन्हेँ छोड़ा है,
क्योँकि तुमने
स्वयं को सदा
 एक असीम से जोड़ा है,
जहाँ कोई
किनारा नही
और जो तुम्हेँ
विशिष्ट नहीँ रहने देता
साधारण कर देता है
स्वयं तुम्हारा
आवरण बनकर
तुम्हेँ निरावरण
कर देता है
ताकि तुम दे सको
अपना सर्वस्व
और मुक्त हो सको
निजता के भार से।

3 टिप्‍पणियां:

  1. और जो तुम्हेँ
    विशिष्ट नहीँ रहने देता
    साधारण कर देता है
    स्वयं तुम्हारा
    आवरण बनकर
    तुम्हेँ निरावरण
    कर देता है
    ताक 367; तुम दे सको
    अपना सर्वस्व
    और मुक्त हो सको
    निजता के भार से।


    sundaram !

    जवाब देंहटाएं
  2. kuch dhoondte hue aapka blog mil gya...
    sach aana asafal nahi gaya.. blog aur rachnaayein..sabhi khoobsurat hain.. badhai arun ji

    Deep

    जवाब देंहटाएं
  3. क्योँकि तुमने
    स्वयं को सदा
    एक असीम से जोड़ा है,
    जहाँ कोई
    किनारा नही
    और जो तुम्हेँ
    विशिष्ट नहीँ रहने देता
    साधारण कर देता है
    स्वयं तुम्हारा
    आवरण बनकर
    तुम्हेँ निरावरण
    कर देता है
    ताकि तुम दे सको
    अपना सर्वस्व
    और मुक्त हो सको
    निजता के भार से।
    Really ARUN JI really thats unique lines not lines its verse like eshovasya upnishad. our country is great............
    wish u the the best for youe nice post.

    जवाब देंहटाएं

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