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सोमवार, 12 अप्रैल 2010

'मिसिर' शहर मेँ तेरे



न किसी का है न मेरा
न ज़माना तेरा,
फिर दिले-ख़स्ता कहाँ
होगा ठिकाना तेरा।

बर्क़वश आए निगाहोँ मेँ
चमक छोड़ गए,
ऐसे आने से तो बेहतर था
न आना तेरा।

कर लिया चाक गरेबान
ख़ाक मुँह पे मली,
कितना सजधज के चला
आज दिवाना तेरा।

शर्त है अहदे-वस्ल मैँ
ही ना रहूँ मौजूद,
क्या नहीँ है ये न मिलने
का बहाना तेरा।

'मिसिर' शहर मेँ तेरे
बुलबुलेँ भी क्या करतीँ,
अब तो सुनता ही नहीँ
कोई तराना तेरा।

3 टिप्‍पणियां:

  1. बर्क़वश आए निगाहोँ मेँ
    चमक छोड़ गए,
    ऐसे आने से तो बेहतर था
    न आना तेरा।

    कर लिया चाक गरेबान
    ख़ाक मुँह पे मली,
    कितना सजधज के चला
    आज दिवाना तेरा।

    बहुत खूब ....!!

    बहुत दिनों बाद इक अछि नज़्म पढने को मिली ....!!

    जवाब देंहटाएं
  2. बर्क़वश आए निगाहोँ मेँ
    चमक छोड़ गए,
    ऐसे आने से तो बेहतर था
    न आना तेरा......


    लाजवाब ....बहुत खूब......
    बधाई स्वीकारें !!!

    जवाब देंहटाएं

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