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मंगलवार, 27 सितंबर 2011

मुड़ो न नदी !


तनिक मुड़ो न नदी !
मुझसे होकर बहो 
पत्थर हूँ , मगर मुझमें भी 
एक नदी सोयी पडी है 
बेचैन, 
जब करवट बदलती है 
हिलुरती रहती है देर तक ,
हिलता हुआ पानी 
कुहनी -सी मारता है 
जाने क्या करने को 
उकसाता है ,
तुम इसकी सहजात हो 
इसके मन की जानना 
तुम्हे सहज होगा ,
तनिक इससे जुडो न नदी 
मुड़ो न !

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