मुझसे होकर बहो
पत्थर हूँ , मगर मुझमें भी
एक नदी सोयी पडी है
बेचैन,
जब करवट बदलती है
हिलुरती रहती है देर तक ,
हिलता हुआ पानी
कुहनी -सी मारता है
जाने क्या करने को
उकसाता है ,
तुम इसकी सहजात हो
इसके मन की जानना
तुम्हे सहज होगा ,
तनिक इससे जुडो न नदी
मुड़ो न !
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें
आपकी मूल्यवान प्रतिक्रिया का स्वागत है