पर्वत शिखरोँ पर जमीँ
प्रस्तरीभूत हिम-सा मैँ
तुमसे अभिभूत -
ओ ! सौन्दर्य सिन्धु,
अपनी प्रार्थनाओँ के
ताप से पिघल कर
आकर्षण की ढलानोँ पर
बहा हूँ
दौड़ता, कभी -
ठिठकता ठहरता,
स्वयं मेँ चक्कर खाता,
और पुनः वेग पाकर
बह निकलता,
नुकीले आलोचक
पत्थरोँ को गोल करता,
तट के वृक्षोँ को सीँचता,
जल- जन्तुओँ को
आश्रय देता,
तुम्हारी ओर एक जीवित
प्रार्थना बनकर बहा हूँ।
इन प्रार्थनाओँ को
सूखने मत देना,कि-
मैँ तुम्हारी सतह पर
आनन्द-नर्तन करती
एक हिलोर -सा
तेरा ही खेल खेल सकूँ
तुझसे ही
तुझमेँ ही...
......
अभिव्यक्ति की महानतम उँचाइयोँ से उतर कर यह रचना स्वयँ मे एक जीवित प्रार्थना ही बन गई हैँ. रचना का शिल्प मन को छू लेने वाला है , उर्वर शब्द चयन तथा भाव प्रखरता के लिये ह्रदय से साथुवाद .
जवाब देंहटाएंanandmayi abhivyakti.
जवाब देंहटाएंdhanyavaad!!!
इन प्रार्थनाओँ को
जवाब देंहटाएंसूखने मत देना,कि-
मैँ तुम्हारी सतह पर
आनन्द-नर्तन करती
एक हिलोर -सा
तेरा ही खेल खेल सकूँ
तुझसे ही
तुझमेँ ही...
बहुत सुंदर .....!!
bahut hi sundar...
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