करवटें
बदलती रहती है
और एक
बे-चेहरा ख़ाब
बेचैन-ओ-परेशां
भटकता रहता है
करवट-दर-करवट
ज़िंदगी के तिलस्मी
आइनाघर में ,
ख़यालों की भीड़ में
गुम हो चुके उस
चेहरे की खोज में
जो कभी उसका था !
हरेक आइना
उसे एक चेहरा
दिखाता है
जिसे देख वह कुछ
ठिठकता है
मगर फिर
आगे बढ़ जाता है !
एक रात मैंने उसे
रोक कर पूछा -
मुद्दतों हुए तुम्हें
यूहीं भटकते ,
और ये आईने
तुम्हारे चेहरे की
ठीक ठीक नक़ल भी
अब तक न बना पाए ,
पुराने पड़ चुके उस
चेहरे को आखिर तुम
कैसे पहचानोगे ,
अब तक तो
टूट फूट घिस कर
कितना कुछ
बदल चुका होगा वह !
वह बोला -
मेरे चेहरे की पेशानी पर
मुसीबतों के बोसे का
स्याह निशान है
वह न बदला होगा
उसी से पहचानूँगा
आम आदमी की
ज़िंदगी के ख़ाब का
चेहरा जो ठहरा !!
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