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गुरुवार, 19 मई 2011

जिन्हें शब्द नहीं मिले



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मैं शहर की गलियों में
दिन-रात भटकता रहता हूँ ..............
उन अर्थों की तरह
जिन्हें शब्द नहीं मिले
और अगर मिले तो
भाषा से निर्वासित कर दिए गए
अशांति की आशंका में !
हर घटना के
अदि,मध्य और अंत को टटोलते हुए
उन निर्वासित शब्दों की टोह में
भटकता रहता हूँ
इस सच के साथ
कि जिस दिन हम
भाषा में घटित होंगे ,
कई जगहों से टूटी हुई भाषा पूरी होकर
हमारे पक्ष में खड़ी हो जायेगी,
बेदखल कर दी जायेंगी
गलत व्याख्याएँ और परिभाषायें
और तब इस दुनियाँ को भी बदलना होगा !

4 टिप्‍पणियां:

  1. कई जगहों से टूटी हुई भाषा पूरी होकर
    हमारे पक्ष में खड़ी हो जायेगी,
    बेदखल कर दी जायेंगी
    गलत व्याख्याएँ और परिभाषायें
    और तब इस दुनियाँ को भी बदलना होगा !

    Bahut khubsurat rachna
    badhai sweekar karein

    जवाब देंहटाएं
  2. क्या रचना है साब !
    भटकता रहता हूँ
    इस सच के साथ
    कि जिस दिन हम
    भाषा में घटित होंगे ,
    कई जगहों से टूटी हुई भाषा पूरी होकर
    हमारे पक्ष में खड़ी हो जायेगी,
    बेदखल कर दी जायेंगी
    गलत व्याख्याएँ और परिभाषायें
    और तब इस दुनियाँ को भी बदलना होगा !
    हा ये सच है बदलना ही होगा
    साधुवाद

    जवाब देंहटाएं
  3. aatma vibhore kar gayi aap ki kalam se nukale jaise mere hriday ke bhaav ye....bahut badhaai,.

    जवाब देंहटाएं
  4. behad zaroori kavita..
    जिस दिन हम
    भाषा में घटित होंगे ,
    कई जगहों से टूटी हुई भाषा पूरी होकर
    हमारे पक्ष में खड़ी हो जायेगी vaah

    जवाब देंहटाएं

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