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शनिवार, 26 मई 2012

अक्लमंदी



झोपड़ी में 
दस लोग खड़े थे
पाँच ने सोंचा पाँच ही होते
तो बैठ सकते थे
दो ने सोंचा दो ही होते
तो लेट सकते थे
एक ने सोंचा केवल मैं ही होता
तो बाकी जगह
किराए पर उठा देता !

पोखर


अपने घर को घुमा कर मैंने 
उसका रुख  समंदर की ओर कर दिया है 
वह पोखर जो कभी घर के सामने था 
पिछवाड़े हो  गया है !

लगभग भूला ही रहता हूँ उसे अब 
लेकिन कभी जब यूँही बे-इरादा 
पीछे की खिड़की खोलता हूँ 
हुमक कर आ जाता है 
आधा चेहरा छिपाये सिर्फ एक आँख से देखती
उस दलित लड़की-सा 
जो अभी तक मेरे वादों को सच मानती है !

उसके स्याह हिलते पानी में कुछ वाक्य  चमकते है --
"मैं तुम्हारी तनहाइयों का साथी रहा हूँ !"
" लेकिन अब मैं तनहा नहीं हूँ !"
--मैं बड़बड़ाता हूँ और खिड़की बंद कर लेता हूँ !

अक्सर मैं उस खिड़की के पास जाता हूँ और 
उसे बिना खोले लौट आता हूँ 
वर्जित-सी हो गई है वह अब मेरे लिए !

एक दिन खिड़की ने मुझसे कहा --
" तुम्हारी उपेक्षा से नहीं  सूखेगा यह पोखर ,
इसके पानी को समुंदर के पानी से मिला दो 
विसर्जित कर दो इसे विराट जल-राशि में 1"

यही किया मैंने 
उसका सारा पानी उलीच दिया समुंदर में 
और वहाँ एक तख्ती लगा दी 
जिस पर लिखा था--
"अब मेरे निजी दुख 
इस पोखर में नहीं रहते !"

हमेशा उन्हें अपने मे पाओगी !


क्या सहेजा उस पत्थर को पहाड़ ने ,
उस पीले पत्ते को पेड़ ने,
नदी ने उस लहर को ,
उन्हें भरोसा है -
वे कहीं नहीं जाते हैं 
जरा-सा घूम-फिर के लौट आते हैं 
यहाँ नहीं तो वहाँ वहाँ नहीं तो कहीं और 
धरती के सिवा उनका कोई  नहीं है ठौर !
दरअसल  
हम उन्हें नही उनकी पहचान को सहेजते हैं  
उनकी पहचान को खोने से डरते हैं 
तुम रश्मि,
जिस दिन धरती-सी हो जाओगी 
हमेशा उन्हें अपने मे पाओगी !

संध्या पर Tuesday, May 22, 2012



धरती पर बरसती है धूप 
और पानी आकाश पर !

एक -दूसरे को भिगोते हुए 
दोनों ही खुश हैं !

एक ही प्यार 
ढंग अपने-अपने !

लथपथ  निचुड़ते खड़े हैं 
संध्या पर दोनों 
सूखने !!

सहमा हुआ कलाबोध



अपनी गंध के धक्के से खिलता है फूल ,
जल की प्रचुरता ही देती है 
नदी को विस्तार ,
और असह्य पीड़ा से मिलती है
घाव को गहराई !

सहनीय पीड़ा भी
एक असहनीय पीड़ादायक स्थिति है  ,
घाव का उथला होना  उससे बड़ा  घाव है !

मैं हर उस चाकू की ओर दौड़ जाता हूँ 
जिसके  हत्थे  पर दिल खुदा होता है 
इस उम्मीद में कि अब घाव को
मिल सकेगी समुचित गहराई ,
पीड़ा को असहनीयता ,
और तेज़ हो सकेगी भट्ठी की आँच ,
खौलते पानी से उठेगी भाप
बादल बन कर कुछ समय को ही सही 
ढँक लेगी चाँद ,
इस चाँदनी से अच्छा है वह अंधेरा 
जिसकी बंद पलकों में 
छलछला आए लहू की एक बूंद 
ढरक  कर सूरज बन जाती है !

लेकिन मैं इन चाकुओं का क्या करूँ 
कला के नाम पर जिनकी धार 
छिपा दी गई है हत्थे में ही कहीं
शायद उस पर खुदे दिल में 
जिनमें लहू की जगह डर भरा है !

किसी काम  का नहीं इनका 
सहमा हुआ कलाबोध 
शीशे के पीछे रखी
सजावटी वस्तुएँ हैं ये !

ओह !! अपने डर को 
एक सौंदर्य-प्रसाधन  बना लेना 
कितना डरावना है !!

रविवार, 13 मई 2012

पढ़ते-पढ़ते: अरुंधती राय : पूंजीवाद एक प्रेतकथा

पढ़ते-पढ़ते: अरुंधती राय : पूंजीवाद एक प्रेतकथा: आउटलुक में प्रकाशित अरुंधती राय के लेख 'कैपिटलिज्म अ घोस्ट स्टोरी' के अनुवाद का श्रमसाध्य कार्य भारत भूषण जी ने किया है. उनका शुक्रगुजार होत...

शनिवार, 5 मई 2012

लट्टू

और तेज़ करो रक्स 
जब तक नाचता हुआ लट्टू 
ठहरा हुआ न लगने लगे ,
एक उचटती हुई निगाह उस पर 
डालकर बाहर निकल जाओ 
कुछ देर 
अपनी पहचान के साथ बहो 
जो एक नदी की तरह है 
उद्गम की ओर बहती !

गुरुवार, 3 मई 2012

जाते हुए उसको

जाते हुए उसको
बड़ी हसरत से देख रहा था 
कि पकड़ गया !!

झट 
मैंने अपनी जेब से 
जो कमीज़ में कहीं नहीं थी 
एक कागज़ निकाला 
जो जेब में था ही नहीं 
और उसमें बड़े गौर से
वह पढ़ता रहा
जो उसमें नहीं लिखा था ,

जब तक वह चली नहीं गई !