LATEST:


विजेट आपके ब्लॉग पर

शनिवार, 26 मई 2012

पोखर


अपने घर को घुमा कर मैंने 
उसका रुख  समंदर की ओर कर दिया है 
वह पोखर जो कभी घर के सामने था 
पिछवाड़े हो  गया है !

लगभग भूला ही रहता हूँ उसे अब 
लेकिन कभी जब यूँही बे-इरादा 
पीछे की खिड़की खोलता हूँ 
हुमक कर आ जाता है 
आधा चेहरा छिपाये सिर्फ एक आँख से देखती
उस दलित लड़की-सा 
जो अभी तक मेरे वादों को सच मानती है !

उसके स्याह हिलते पानी में कुछ वाक्य  चमकते है --
"मैं तुम्हारी तनहाइयों का साथी रहा हूँ !"
" लेकिन अब मैं तनहा नहीं हूँ !"
--मैं बड़बड़ाता हूँ और खिड़की बंद कर लेता हूँ !

अक्सर मैं उस खिड़की के पास जाता हूँ और 
उसे बिना खोले लौट आता हूँ 
वर्जित-सी हो गई है वह अब मेरे लिए !

एक दिन खिड़की ने मुझसे कहा --
" तुम्हारी उपेक्षा से नहीं  सूखेगा यह पोखर ,
इसके पानी को समुंदर के पानी से मिला दो 
विसर्जित कर दो इसे विराट जल-राशि में 1"

यही किया मैंने 
उसका सारा पानी उलीच दिया समुंदर में 
और वहाँ एक तख्ती लगा दी 
जिस पर लिखा था--
"अब मेरे निजी दुख 
इस पोखर में नहीं रहते !"

3 टिप्‍पणियां:

  1. अब मेरे निजी दुःख इस पोखर में नहीं रहते .... कितनी गहरी बात कह दी सर.

    वाह !!

    बेहद सुन्दर रचना सर

    बधाई !

    -ckh-

    जवाब देंहटाएं
  2. बहुत खूब ... गहरे एहसास समेटे कविता ....

    जवाब देंहटाएं
  3. पढ़ते ही वाह निकला मुंह से...
    दिल को छूती हुयी...

    जवाब देंहटाएं

आपकी मूल्यवान प्रतिक्रिया का स्वागत है