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बुधवार, 17 फ़रवरी 2010

'शब'


शब से कोई उम्मीद
क्या रखना
टूटती है
तो टूट जाने दो
दामने -शब का
आखिरी कोना
छूटता है तो
छूट जाने दो।

आखिर यह तुमको
और क्या देगी
बहुत हुआ तो ख़्वाब
दे देगी।

जिसमेँ बदकार
तमन्नाओँ के
बरहना और गुदाज़
तन होँगे
जिनके कज्जाख़
इरादोँ मेँ छुपे
तेरी सुबहोँ के
राहज़न होँगे।

दबोच लेँगे ये
उगते हुए
सूरज को वहीँ
तोड़ कर रौशनी
बहा देँगे
उजले उजले तेरे
मासूम उफ़क
अपने ही ख़ून मेँ
नहा लेँगे।

तब भी क्या सुर्ख़
न होगा ये फ़लक
और हवाएँ न गर्म
होँगी क्या ?
तब भी क्या अपनी
माँदगी पे तुझे
कुछ न होगा तो शर्म
होगी क्या ?

ख़्वाब मत देख
अपने बाजू देख
सदियोँ से जो
झुका है एक तरफ
तिरछे इंसाफ का
तराजू देख।

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