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शुक्रवार, 19 फ़रवरी 2010

वह रूप तज़ल्ली मेँ.....

वह रूप तज़ल्ली मेँ
दिख कर छुपा न होता 
यह दर्द मुहब्बत का 
हमको अता न होता।
 

उसकी ज़िया के आगे 
आँखे न झपक जातीँ 
कोई मैकशी न होती
कोई मैकदा न होता। 

अच्छा तो यही होता
आँखेँ ही फूट जातीँ
यह शौके -दीद अपना
कुफ्रो -ख़ता न होता।

इस दर्द को छोड़ो जी
गर तुम न मिले होते
पहलू मेँ कोई दिल है
यह भी पता न होता।

फितरत मेँ गर न होती
आवारगी जहाँ की
कोई नक्शे -पा न बनता
कोई रास्ता न होता।

सलाम

3 टिप्‍पणियां:

  1. Pehloo mein koi dil hai ye bhi pataa na hotaa....yeh misraa mere upar chhaap chhod gaya hai....hatss off
    .
    --Gaurav (Lams)

    जवाब देंहटाएं
  2. शुक्रिया लम्स
    कुछ शेर अनायास
    आते हैँ उसमेँ आपकी
    कोई कोशिश नहीँ होती।

    जवाब देंहटाएं
  3. hota to sab yu hi hai ,

    bas hum samajh kuchh aur lete hain .....

    जवाब देंहटाएं

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