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रविवार, 28 फ़रवरी 2010

आवरण

निजता को मैंने अपने कृतित्व की
ओट में छिपाया है
तुम्हारी तरह - रेशमी धागों का आवरण
इर्द गिर्द अपने बुना है बनाया है।
यह बिल्कुल सच है
कि यह आवरण मेरा सुरक्षा कवच है
मुझतक जो आता है ,
पहले इससे टकराता है ,
उलझता है और मुझ तक पँहुच नहीं पाता है
किन्तु एक दिन - स्वयं इसे काटकर
छिन्न भिन्न कर इसे मैं उड़ जाऊँगा
पारदर्शी पंखों पर सुदूर कहीं शून्य में !
जिन्दा रहेंगे किन्तु प्राण रहेगा शेष,
यहाँ वहाँ ,इधर उधर
भागे -भागे फिरेँगे, त्यागे ये धागे अभागे
हवाओँ मेँ तिरेँगे।
उलझेंगे,अटकेँगे
पेड़ों पर झण्डोँ से
बिजली के तारों से,
बाँसोँ सरकण्डोँ से ,
झगड़ालू झाड़ोँ की अंतहीन बहसोँ से,
मेँहदी से सरसोँ से,
उच्चता से ताड़ोँ की शायद 
अनदेखे ही रह जायेँ,
उन तक न पँहुच पायेँ।
स्रजनतत्परा,सगर्भा कोई चिड़िया
शायद कभी पा जाए इनमे से कुछ धागे
उन्हे अपने नीड़ का हिस्सा बनाले,
कुछ सच्चा कुछ झूठा
बच्चों के लिए कोई मेरा भी शायद एक किस्सा बनाले।