वह मान बैठी है --
अस्तित्व ही उसकी व्याधि है ,
जिससे मुक्ति के लिए
ढलानों की तलाश में बल खाती हुई
वह अपना जिस्म तोड़ती रहती है,
वह हर गड्ढे में उतर कर नापती है
अपने समां जाने भर की जगह,
वह हर उस नदी के साथ हो लेती है
जिसके पास किसी समंदर का पता है ,
वह नहीं जानती
कि पीछे आने वाला पानी भी
दरअसल वही है ,
वह कभी नहीं चुकेगी !
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