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गुरुवार, 19 मई 2011

जिन्हें शब्द नहीं मिले



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मैं शहर की गलियों में
दिन-रात भटकता रहता हूँ ..............
उन अर्थों की तरह
जिन्हें शब्द नहीं मिले
और अगर मिले तो
भाषा से निर्वासित कर दिए गए
अशांति की आशंका में !
हर घटना के
अदि,मध्य और अंत को टटोलते हुए
उन निर्वासित शब्दों की टोह में
भटकता रहता हूँ
इस सच के साथ
कि जिस दिन हम
भाषा में घटित होंगे ,
कई जगहों से टूटी हुई भाषा पूरी होकर
हमारे पक्ष में खड़ी हो जायेगी,
बेदखल कर दी जायेंगी
गलत व्याख्याएँ और परिभाषायें
और तब इस दुनियाँ को भी बदलना होगा !

नए सबेरे का सूरज


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वो जिनके सीनों में दुबक कर
रौशनी ने खुद को बचा रक्खा है
अंधेरों की निगाहों से ,
तुम्हारे भुलावे के जंगल से
निकल कर पंहुच रहे हैं
सोंच के इक अंजाम तक !

जल्द यह घाटी भर जायेगी
जुगनुओं से
और यहीं से उगेगा
नए सबेरे का सूरज !

और आंधी सिर्फ हवाओं की ही नहीं होती
जिसमें सिर्फ शाखें ही टूटती हैं ,
दरख़्त ही उखड़ते हैं-
आंधी रौशनी की भी होती है
जिसमें जड़ें तक जल जाती हैं !