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सोमवार, 30 अप्रैल 2012

दो खिड़कियों वाला कमरा

वह 
दो खिड़कियों वाला कमरा है !
एक से बाहर देखा जाता है और-
दूसरी से
कमरे के भीतर झाँका जाता है !

एक ओर चप्पू चलाने से 
नाँव आगे नहीं बढ़ती ,
अपनी जगह 
चक्कर लगाती रहती है !

इमारत




अजीब इमारत है 
भूतल पर जो बदसूरती जन्म लेती है 
ऊपर की मंजिलों में 
जवान होती जाती है ! 
सबसे ऊपरी मंजिल 
                      खंडहर हो चुकी है !

मंगलवार, 24 अप्रैल 2012

अकेले शब्द



................ 


अकेले पड़ गए हैं तुम्हारे शब्द 
साथ नहीं हैं उनके 
कसी हुई मुट्ठियाँ !


वे व्यस्त हैं कहीं 
भूकंप से हिलते हुए घर को बचाने में 
घाव पर मरहम लगाने में 
पिराती चोट सहलाने में ,
अपने लिए एक सुरक्षा -कवच बनाने मे
संभावित दुर्भिक्ष के लिए
आहार जुटाने में !

वे व्यस्त हैं कहीं
भूसे में सुई ढूँढने में ,
पत्थर निचोड़ने में ,
हवा में गाँठ लगाने या-
लगी गाँठ खोलने में !

अक्सर मैं देखता हूँ
मार खाये शब्दों को
चीख कर भागते जंगल की ओर
जैसे पहले से छिपाई पिस्तौल लेने गए हों
मगर कभी लौटे नहीं ,
या क्षुब्ध मौन के गंदले पोखर में
आत्महत्या के लिए छलांग लगाते
मगर कभी मरते नहीं !

वे काली रातों में भूतों की तरह
मँडराते रहते हैं
पीपल की डालों पर लटके रहते हैं
चमगादड़ों की तरह चिंचियाते
लहू में घोलते अपनी बीट और पेशाब
छिछिया डालते हैं सिगरी आत्मा ........
.
कब तक रहोगे इस
सड़ांध भरे घिनाए हुए घर मे ?
कब तक बढ़ाते रहोगे
शब्दों के प्यादे बिना किसी ज़ोर के
आखिर
आखिर
कितना जोखिम उठा सकते हो तुम ?

शुक्रवार, 20 अप्रैल 2012

उम्मीद का पत्थर

मुझे उम्मीद थी कि -
सड़क पर पड़े इस पत्थर के कारण 
अब कोई दुर्घटना नहीं घटेगी !

बुरा नहीं है उम्मीद का रखना !
लेकिन किसी दुर्घटना से कम नहीं 
उम्मीद का पत्थर हो जाना !

माँ

क्या तुमने
घुटनों तक जमीन में गड़ी
सिर पर एक छत ढोते हुए
सीलन के धब्बों से भरी
और अपने में धँसी कीलों से
कुछ तस्वीरें लटकाये ,
किसी दीवार को देखा है ?
अगर नहीं
तो तुमने अपनी माँ को नहीं देखा.!!

सोमवार, 16 अप्रैल 2012

असुविधा: हरिओम राजोरिया की कविताएँ

असुविधा: हरिओम राजोरिया की कविताएँ: हरिओम राजोरिया नब्बे के दशक के एक बेहद महत्वपूर्ण कवि हैं. अब तक उनकी एक कविता पुस्तिका "यही सच है' (1993)और दो कविता संकलन "हंसीघर (म...

छवियाँ ही छवियाँ हैं


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तुमने मेरी एक छवि बनाई है ,और -
मैंने तुम्हारी !

हम-तुम जब मिलते हैं ,
हम नहीं मिलते हैं 
हमारी छवियाँ मिलती हैं !

छवियों के पैरों में
हमारे भरोसे के जूते हैं ,
और हम नंगे पाँव
इसलिए जब हम चलते हैं एक कदम
तो वे चलती हैं दो कदम !

देखते सुनते खड़े रह जाते हम
खिसियाए ,हाथ मलते हुए
उनका लपक कर मिलना और
दाँव -पेंच भरी हासयुक्त बतकही !

मन की सँकरी गली में
हमारे-तुम्हारे बीच अड़ी हैं
छवियाँ खड़ी हैं
ऐसी ही अनगिनत मन की
संकीर्ण गलियों में
छवियाँ ही छवियाँ है
पूरे शहर में
छवियों की भीड़ में
हम-तुम कहीं नहीं !!

आओ हम सहमत हों -
संकीर्णताओं से बाहर निकलें
खुली जगह में
मारते हुए छवियों को धक्का
बगल से निकल जाएँ
गले में बाहें डाल
हँसते हुए उन पर
छोड़ दें उन्हें
उन्हीं सँकरी गलियो में
और आगे बढ़ जाएँ !

मंगलवार, 3 अप्रैल 2012

नैनीताल


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इन पहाड़ों ने 
पकड़ कर एक नदी 
गड्ढे में गिरा ली है ,
उनके कहकहे देख रहे हैं अब 
उसकी सहमी लहरों का कसमसाना !

वह लगातार कहती है किनारों पर --
"छोड़ दो मुझे
मुझे कहीं जाना है ,
एक अनजानी राह मेरी राह देख रही है
बहना ही मेरा स्वभाव है
मैं जल हूँ
रुकूँगी तो जल जाऊँगी
मेरे अंतर का वेग जब
क्षुब्ध हो उठेगा
घूर्णित जल-बिन्दुओं का घर्षण तब
बढ़ाएगा उत्ताप ,
भाप बन उड़ूँगी मैं
बादल बन उमड़ूँगी घुमड़ूँगी
घटा बन घहराऊँगी
और फिर तुम्हारे ऊपर बरसूँगी
काटूँगी ,क्षार-क्षार कर दूँगी
सब माटी तुम्हारी बहा दूँगी !
छोड़ दो मुझे
खोल दो राह मेरी
मुझे कहीं जाना है !"