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अकेले पड़ गए हैं तुम्हारे शब्द
साथ नहीं हैं उनके
कसी हुई मुट्ठियाँ !
वे व्यस्त हैं कहीं
भूकंप से हिलते हुए घर को बचाने में
घाव पर मरहम लगाने में
पिराती चोट सहलाने में ,
अपने लिए एक सुरक्षा -कवच बनाने मे
संभावित दुर्भिक्ष के लिए
आहार जुटाने में !
वे व्यस्त हैं कहीं
भूसे में सुई ढूँढने में ,
पत्थर निचोड़ने में ,
हवा में गाँठ लगाने या-
लगी गाँठ खोलने में !
अक्सर मैं देखता हूँ
मार खाये शब्दों को
चीख कर भागते जंगल की ओर
जैसे पहले से छिपाई पिस्तौल लेने गए हों
मगर कभी लौटे नहीं ,
या क्षुब्ध मौन के गंदले पोखर में
आत्महत्या के लिए छलांग लगाते
मगर कभी मरते नहीं !
वे काली रातों में भूतों की तरह
मँडराते रहते हैं
पीपल की डालों पर लटके रहते हैं
चमगादड़ों की तरह चिंचियाते
लहू में घोलते अपनी बीट और पेशाब
छिछिया डालते हैं सिगरी आत्मा ........
.
कब तक रहोगे इस
सड़ांध भरे घिनाए हुए घर मे ?
कब तक बढ़ाते रहोगे
शब्दों के प्यादे बिना किसी ज़ोर के
आखिर
आखिर
कितना जोखिम उठा सकते हो तुम ?
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