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रविवार, 2 दिसंबर 2012

जनपक्ष: भारत में विज्ञान का इतिहास और भौतिकवाद

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शुक्रवार, 30 नवंबर 2012

पढ़ते-पढ़ते: अरुंधती राय : केजरीवाल के खुलासे

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रविवार, 9 सितंबर 2012

YOUNG AZAMGARH: समाजवाद क्यों ? - एल्बर्ट आइंस्टीन

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मंगलवार, 10 जुलाई 2012

बाज़ार


Monday, July 2, 2012
बादल हैं या 
हवा के जाल फँसी 
ह्वेल  मछलियाँ हैं ,
घसीटता मछुआरा  
ले जाता खैंच 
पश्चिमी बाज़ार 
अरे ! क्या इनको भी
डालेगा बेंच ??

सुबूत


ऐसे भागा 
जैसे गलत पते पर बरस गया हो ,
अपने उस भाई से 
जो सूरज ढके हुए था 
हटने को बोल गया 
ताकि बरसा हुआ पानी 
जल्दी सूख जाए 
और इस तरह उसने 
अपनी गलती का
कोई सुबूत नहीं छोड़ा !

कमजोरी



Saturday, July 7, 2012
बहुत कमजोर हो गई थी वह 
कि 
आधी रोटी 
खाने बाद ही............. मर सकी !

लाल चुन्नी जाग !!



Sunday
इस बार भी आएगा 
वो भेड़िया 
अपने कृपा-हास में दाँत  ,
वरद-हस्त में नाखून 
और 
मधुर शब्दों में 
मसूढ़ों की लालिमा छिपाए 
नन्ही लाल चुन्नी की नानी बनकर 

और शायद इस बार 
एन मौके पर 
कोई लकड़हारा 
उधर से न गुजरे !


Monday, June 25, 2012
मैं उतना ही नहीं हूँ 
जितना आपके सामने बैठा हूँ 
वह भी हूँ 
जो आपके सामने बैठेगा 
कल,परसों,और आगे के दिनों में |


अगर मेरी नाव
अभी भी पानी में है 
रेत पर नहीं ,
तो यकीन मानिए 
बीज  के भीतर मौजूद है 
एक पेड़ ,
पेड़ के भीतर 
जड़ें हैं ,शाखाएँ हैं,पत्ते हैं, 
पत्तों के भीतर पंछी हैं, 
पंछियों के भीतर 
घोंसले हैं 
और घोंसलों में उनके 
अंडे हैं ,बच्चे हैं |

अकारण ही नहीं फूल जाते हैं पेट 
और सिर्फ हवा ही नहीं भरी होती है उनमे 
कुछ है जो कल बाहर आएगा 
और तुम्हें हैरान कर देगा, 
क्या हैरान होने के लिए 
तुम्हारी कोई तैयारी है ?
क्या तुम इस तैयारी की 
कोई ज़रूरत महसूस करते हो?

कुछ लोग ज़रूरत 
तभी महसूस करते हैं 
जब वह उन्हें
कुचल कर आगे निकल जाती है 
लेकिन 
तुम मुझे ऐसे तो नहीं लगते !!

तीन कवितायें




  • Wednesday, June 20, 2012
    ठीक है
    कि जरूरी थी खून की जांच 
    घुस आए रोगाणुओं की पहचान 
    ताकि समय रहते उपचार हो सके !


    लेकिन क्या यह भी जरूरी था 
    कि खून का नमूना 
    सुई की जगह खंजर घोंप कर लिया जाए ?


    अब वह
    तुम्हारी जांच रपट सुनेगा 
    या 
    घाव सिलवाने किसी दर्जी के पास भागेगा ?


    एक सुई के लिए 
    एक घाव को 
    खंजर के खिलाफ कर देना 
    मुश्किल नहीं होता !!

  • Wednesday, June 20, 2012
    उम्मीद 
    यही नाम बताया था 
    उस नाज़ुक-सी लड़की ने |


    बुरी तरह रीझे मन ने कहा --
    " तुम बहुत सुंदर हो "


    सुनते ही अचानक 
    उसका रूप बदलने लगा 
    एक पल में उसकी जगह 
    एक हट्टा-कट्टा आदमी खड़ा था 
    साँवला चेहरा , उड़े-उड़े से बाल
    कमीज के दो बटन खोले 
    इतमीनान से सिगरेट पीता हुआ 
    मेरे तरफ हाथ बढ़ाकर बोला-
    "मुझे विश्वास कहते हैं |"


  • Saturday, June 16, 2012
    शिला के नीचे दबे-दबे छटपटाते हुए 
    कोसते रहते हैं हम 
    या
    रेत का रोना रोते हैं 
    कि  हाथों मे ठहरती ही नहीं ,
    क्या हम 
    शिला को पीस कर 
    रेत मिला कर 
    नदी और समुद्र के  
    एक-एक चुल्लू पानी में गूँथ कर
    एक गीली मिट्टी नहीं बना सकते हैं,
    जिस पर फूल उगाये जा सकें ?


     जिंदगी एक उद्यम है  साथी !!

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शनिवार, 26 मई 2012

अक्लमंदी



झोपड़ी में 
दस लोग खड़े थे
पाँच ने सोंचा पाँच ही होते
तो बैठ सकते थे
दो ने सोंचा दो ही होते
तो लेट सकते थे
एक ने सोंचा केवल मैं ही होता
तो बाकी जगह
किराए पर उठा देता !

पोखर


अपने घर को घुमा कर मैंने 
उसका रुख  समंदर की ओर कर दिया है 
वह पोखर जो कभी घर के सामने था 
पिछवाड़े हो  गया है !

लगभग भूला ही रहता हूँ उसे अब 
लेकिन कभी जब यूँही बे-इरादा 
पीछे की खिड़की खोलता हूँ 
हुमक कर आ जाता है 
आधा चेहरा छिपाये सिर्फ एक आँख से देखती
उस दलित लड़की-सा 
जो अभी तक मेरे वादों को सच मानती है !

उसके स्याह हिलते पानी में कुछ वाक्य  चमकते है --
"मैं तुम्हारी तनहाइयों का साथी रहा हूँ !"
" लेकिन अब मैं तनहा नहीं हूँ !"
--मैं बड़बड़ाता हूँ और खिड़की बंद कर लेता हूँ !

अक्सर मैं उस खिड़की के पास जाता हूँ और 
उसे बिना खोले लौट आता हूँ 
वर्जित-सी हो गई है वह अब मेरे लिए !

एक दिन खिड़की ने मुझसे कहा --
" तुम्हारी उपेक्षा से नहीं  सूखेगा यह पोखर ,
इसके पानी को समुंदर के पानी से मिला दो 
विसर्जित कर दो इसे विराट जल-राशि में 1"

यही किया मैंने 
उसका सारा पानी उलीच दिया समुंदर में 
और वहाँ एक तख्ती लगा दी 
जिस पर लिखा था--
"अब मेरे निजी दुख 
इस पोखर में नहीं रहते !"

हमेशा उन्हें अपने मे पाओगी !


क्या सहेजा उस पत्थर को पहाड़ ने ,
उस पीले पत्ते को पेड़ ने,
नदी ने उस लहर को ,
उन्हें भरोसा है -
वे कहीं नहीं जाते हैं 
जरा-सा घूम-फिर के लौट आते हैं 
यहाँ नहीं तो वहाँ वहाँ नहीं तो कहीं और 
धरती के सिवा उनका कोई  नहीं है ठौर !
दरअसल  
हम उन्हें नही उनकी पहचान को सहेजते हैं  
उनकी पहचान को खोने से डरते हैं 
तुम रश्मि,
जिस दिन धरती-सी हो जाओगी 
हमेशा उन्हें अपने मे पाओगी !

संध्या पर Tuesday, May 22, 2012



धरती पर बरसती है धूप 
और पानी आकाश पर !

एक -दूसरे को भिगोते हुए 
दोनों ही खुश हैं !

एक ही प्यार 
ढंग अपने-अपने !

लथपथ  निचुड़ते खड़े हैं 
संध्या पर दोनों 
सूखने !!

सहमा हुआ कलाबोध



अपनी गंध के धक्के से खिलता है फूल ,
जल की प्रचुरता ही देती है 
नदी को विस्तार ,
और असह्य पीड़ा से मिलती है
घाव को गहराई !

सहनीय पीड़ा भी
एक असहनीय पीड़ादायक स्थिति है  ,
घाव का उथला होना  उससे बड़ा  घाव है !

मैं हर उस चाकू की ओर दौड़ जाता हूँ 
जिसके  हत्थे  पर दिल खुदा होता है 
इस उम्मीद में कि अब घाव को
मिल सकेगी समुचित गहराई ,
पीड़ा को असहनीयता ,
और तेज़ हो सकेगी भट्ठी की आँच ,
खौलते पानी से उठेगी भाप
बादल बन कर कुछ समय को ही सही 
ढँक लेगी चाँद ,
इस चाँदनी से अच्छा है वह अंधेरा 
जिसकी बंद पलकों में 
छलछला आए लहू की एक बूंद 
ढरक  कर सूरज बन जाती है !

लेकिन मैं इन चाकुओं का क्या करूँ 
कला के नाम पर जिनकी धार 
छिपा दी गई है हत्थे में ही कहीं
शायद उस पर खुदे दिल में 
जिनमें लहू की जगह डर भरा है !

किसी काम  का नहीं इनका 
सहमा हुआ कलाबोध 
शीशे के पीछे रखी
सजावटी वस्तुएँ हैं ये !

ओह !! अपने डर को 
एक सौंदर्य-प्रसाधन  बना लेना 
कितना डरावना है !!

रविवार, 13 मई 2012

पढ़ते-पढ़ते: अरुंधती राय : पूंजीवाद एक प्रेतकथा

पढ़ते-पढ़ते: अरुंधती राय : पूंजीवाद एक प्रेतकथा: आउटलुक में प्रकाशित अरुंधती राय के लेख 'कैपिटलिज्म अ घोस्ट स्टोरी' के अनुवाद का श्रमसाध्य कार्य भारत भूषण जी ने किया है. उनका शुक्रगुजार होत...

शनिवार, 5 मई 2012

लट्टू

और तेज़ करो रक्स 
जब तक नाचता हुआ लट्टू 
ठहरा हुआ न लगने लगे ,
एक उचटती हुई निगाह उस पर 
डालकर बाहर निकल जाओ 
कुछ देर 
अपनी पहचान के साथ बहो 
जो एक नदी की तरह है 
उद्गम की ओर बहती !

गुरुवार, 3 मई 2012

जाते हुए उसको

जाते हुए उसको
बड़ी हसरत से देख रहा था 
कि पकड़ गया !!

झट 
मैंने अपनी जेब से 
जो कमीज़ में कहीं नहीं थी 
एक कागज़ निकाला 
जो जेब में था ही नहीं 
और उसमें बड़े गौर से
वह पढ़ता रहा
जो उसमें नहीं लिखा था ,

जब तक वह चली नहीं गई !

सोमवार, 30 अप्रैल 2012

दो खिड़कियों वाला कमरा

वह 
दो खिड़कियों वाला कमरा है !
एक से बाहर देखा जाता है और-
दूसरी से
कमरे के भीतर झाँका जाता है !

एक ओर चप्पू चलाने से 
नाँव आगे नहीं बढ़ती ,
अपनी जगह 
चक्कर लगाती रहती है !

इमारत




अजीब इमारत है 
भूतल पर जो बदसूरती जन्म लेती है 
ऊपर की मंजिलों में 
जवान होती जाती है ! 
सबसे ऊपरी मंजिल 
                      खंडहर हो चुकी है !

मंगलवार, 24 अप्रैल 2012

अकेले शब्द



................ 


अकेले पड़ गए हैं तुम्हारे शब्द 
साथ नहीं हैं उनके 
कसी हुई मुट्ठियाँ !


वे व्यस्त हैं कहीं 
भूकंप से हिलते हुए घर को बचाने में 
घाव पर मरहम लगाने में 
पिराती चोट सहलाने में ,
अपने लिए एक सुरक्षा -कवच बनाने मे
संभावित दुर्भिक्ष के लिए
आहार जुटाने में !

वे व्यस्त हैं कहीं
भूसे में सुई ढूँढने में ,
पत्थर निचोड़ने में ,
हवा में गाँठ लगाने या-
लगी गाँठ खोलने में !

अक्सर मैं देखता हूँ
मार खाये शब्दों को
चीख कर भागते जंगल की ओर
जैसे पहले से छिपाई पिस्तौल लेने गए हों
मगर कभी लौटे नहीं ,
या क्षुब्ध मौन के गंदले पोखर में
आत्महत्या के लिए छलांग लगाते
मगर कभी मरते नहीं !

वे काली रातों में भूतों की तरह
मँडराते रहते हैं
पीपल की डालों पर लटके रहते हैं
चमगादड़ों की तरह चिंचियाते
लहू में घोलते अपनी बीट और पेशाब
छिछिया डालते हैं सिगरी आत्मा ........
.
कब तक रहोगे इस
सड़ांध भरे घिनाए हुए घर मे ?
कब तक बढ़ाते रहोगे
शब्दों के प्यादे बिना किसी ज़ोर के
आखिर
आखिर
कितना जोखिम उठा सकते हो तुम ?

शुक्रवार, 20 अप्रैल 2012

उम्मीद का पत्थर

मुझे उम्मीद थी कि -
सड़क पर पड़े इस पत्थर के कारण 
अब कोई दुर्घटना नहीं घटेगी !

बुरा नहीं है उम्मीद का रखना !
लेकिन किसी दुर्घटना से कम नहीं 
उम्मीद का पत्थर हो जाना !

माँ

क्या तुमने
घुटनों तक जमीन में गड़ी
सिर पर एक छत ढोते हुए
सीलन के धब्बों से भरी
और अपने में धँसी कीलों से
कुछ तस्वीरें लटकाये ,
किसी दीवार को देखा है ?
अगर नहीं
तो तुमने अपनी माँ को नहीं देखा.!!

सोमवार, 16 अप्रैल 2012

असुविधा: हरिओम राजोरिया की कविताएँ

असुविधा: हरिओम राजोरिया की कविताएँ: हरिओम राजोरिया नब्बे के दशक के एक बेहद महत्वपूर्ण कवि हैं. अब तक उनकी एक कविता पुस्तिका "यही सच है' (1993)और दो कविता संकलन "हंसीघर (म...

छवियाँ ही छवियाँ हैं


------------------------

तुमने मेरी एक छवि बनाई है ,और -
मैंने तुम्हारी !

हम-तुम जब मिलते हैं ,
हम नहीं मिलते हैं 
हमारी छवियाँ मिलती हैं !

छवियों के पैरों में
हमारे भरोसे के जूते हैं ,
और हम नंगे पाँव
इसलिए जब हम चलते हैं एक कदम
तो वे चलती हैं दो कदम !

देखते सुनते खड़े रह जाते हम
खिसियाए ,हाथ मलते हुए
उनका लपक कर मिलना और
दाँव -पेंच भरी हासयुक्त बतकही !

मन की सँकरी गली में
हमारे-तुम्हारे बीच अड़ी हैं
छवियाँ खड़ी हैं
ऐसी ही अनगिनत मन की
संकीर्ण गलियों में
छवियाँ ही छवियाँ है
पूरे शहर में
छवियों की भीड़ में
हम-तुम कहीं नहीं !!

आओ हम सहमत हों -
संकीर्णताओं से बाहर निकलें
खुली जगह में
मारते हुए छवियों को धक्का
बगल से निकल जाएँ
गले में बाहें डाल
हँसते हुए उन पर
छोड़ दें उन्हें
उन्हीं सँकरी गलियो में
और आगे बढ़ जाएँ !

मंगलवार, 3 अप्रैल 2012

नैनीताल


---------

इन पहाड़ों ने 
पकड़ कर एक नदी 
गड्ढे में गिरा ली है ,
उनके कहकहे देख रहे हैं अब 
उसकी सहमी लहरों का कसमसाना !

वह लगातार कहती है किनारों पर --
"छोड़ दो मुझे
मुझे कहीं जाना है ,
एक अनजानी राह मेरी राह देख रही है
बहना ही मेरा स्वभाव है
मैं जल हूँ
रुकूँगी तो जल जाऊँगी
मेरे अंतर का वेग जब
क्षुब्ध हो उठेगा
घूर्णित जल-बिन्दुओं का घर्षण तब
बढ़ाएगा उत्ताप ,
भाप बन उड़ूँगी मैं
बादल बन उमड़ूँगी घुमड़ूँगी
घटा बन घहराऊँगी
और फिर तुम्हारे ऊपर बरसूँगी
काटूँगी ,क्षार-क्षार कर दूँगी
सब माटी तुम्हारी बहा दूँगी !
छोड़ दो मुझे
खोल दो राह मेरी
मुझे कहीं जाना है !"

गुरुवार, 29 मार्च 2012

जानकीपुल: शमशेर बहादुर सिंह के अज्ञेय

जानकीपुल: शमशेर बहादुर सिंह के अज्ञेय:   अज्ञेय विविधवर्णी लेखक और विराट व्यक्तित्व वाले थे. यही कारण है कि कुछ विद्वानों का यह मानना रहा है कि रवीन्द्रनाथ टैगोर के बाद वे सब...

मंगलवार, 20 मार्च 2012

निष्पक्ष

निष्पक्ष 
यानी पक्ष-हीन !!
मुर्गियों की दिलचस्पी 
उड़ने में नहीं होती ,
वे दड़बे में रहती हैं 
दानों के इंतजार में 
अंडों के बदले ! 

सोमवार, 19 मार्च 2012

बजट



------
वह आया 
मरहम की एक डिबिया लाया 
उसे घाव के लिए 
बहुत मुफीद बताया ,
"लेकिन इसको लगाने के लिए 
घाव को थोड़ा और बड़ा करना होगा ,
थोड़ा और सहो जहाँ इतना सहा "--
उसने कहा !  

बुधवार, 14 मार्च 2012

पहाड़ों पर सस्ती है धूप !




धूप के भाव क्या चढ़े 
नंगई पे उतर आए पेड़, 
पके -अधपके सब पत्ते  गिरा दिये 
नए पत्तों की भर्ती  पर रोक लगा दी ,
बंद कर दिया धर्मखाता 
मुफ्त की छाया का ,
और वह डाल
जो पूँछ लेती थी कभी-कभी 
पड़ोसी का हाल 
अब ज़मीन सूँघ रही है ,
अपने सारे बीज 
हवाओं के ट्रकों से 
पहाड़ों पर भेज दिये हैं 
धूप वहाँ  सस्ती है !

बेचारी दूब
वह क्या गिराती 
उसने अपना हरा रंग 
खींच लिया वापस जड़ों मे,
और धूप की याद में पीली पड़ गई !

सोमवार, 5 मार्च 2012

दो कवितायेँ !!


१.
घर कितना बड़ा हो जाता है ,
बर्तन कितने ज्यादा 
और कपडे सुखाने की रस्सी
कितनी लम्बी ,

जब तुम नहीं  होती हो !
...........................................
२.
हर कोई एक वक़्त में खरीदार है 
तो दूसरे में दूकानदार ,
वो एक जगह बिकता है 
तो दूसरी जगह खरीदता है !
उसके दोनों कन्धों पर झोले हैं 
एक बिकाऊ सामान से भरा 
और दूसरा खरीद की चीज़ों के लिए खाली !

इंतज़ाम ही ऐसा है ......................
.
कि एक जितना खाली होता है 
दूसरा उतना भरता नहीं !
जब कम भरता है 
आदमी गरीब हो जाता है 
और ज्यादा तो अमीर !

ये कीमतें कौन तय करता है 
कम से कम तुम तो नहीं  -'गरीब आदमी ' !

रविवार, 26 फ़रवरी 2012

शिकार



धूमिल आकाश पर 
शाम जब इधर-उधर 
लाल लाल खून फ़ैल गया था ,
जान लिया था हमने 
कि रात के काले बिलार ने 
आज फिर अपना शिकार कर लिया है ! 

सहमें सिकुड़ रहे दिन औ' फूल रही रातें !

डरता हूँ 
दिन न कहीं रह जाएँ 
हल्की -सी कौंध भर 
वह भी यदा-कदा !!

चुनावों का मौसम ,



क्यूँ आता है फिर-फिर चुनावों का मौसम ,
दिखावों का मौसम,छलावों का मौसम !

बढ़ेगी गिरानी तो उनकी बला से ,
कसेगा हमें फिर अभावों का मौसम !

नदी नाव में बैठकर सोंचती है ,

कब आएगा फिर से बहावों का मौसम !

बरसना नहीं है फ़क़त है नुमाइश ,
तकल्लुफ भरा धूप-छावों का मौसम !
जो इन पुतलियों को नचाता है ,उसके--
लिए उँगलियों के घुमावों का मौसम !

बहार-ए-गुल-ए-सुर्ख छायेगी एक दिन ,
ये कहता है दिल के अलावों का मौसम !

चुनाव संपन्न हुए !

वो जो लपलपाती जीभ जैसे पत्तों वाला पेड़ है 
जिसके नीचे पाँच साल तक ठहरती है छाया ,
वहाँ कुछ टेढ़ी-मेढ़ी रेखायें लेटी थीं मज़े में 
... कुछ गोल-मटोल बिन्दुओं के साथ ,
मिलकर एक शक्ल -सी बनाती हुई 
आँखों की जगह घास के पैबंद 
चुइंगम चबाता मुँह 
होंठों की हिकारत भरी मुस्कान
हिलाता रहता है लगातार !

धूप आ गयी तो उठ कर चले गए सब
दूसरे पेड़ की छाया में
तनिक बदली हुई है शक्ल अब
होंठों पर हिकारत भरी मुस्कान
और भी लम्बी हो गयी है !

चुनाव संपन्न हुए !

शनिवार, 18 फ़रवरी 2012

शुक्रवार, 3 फ़रवरी 2012

साथी पंकज मिश्र की एक कविता


मैं एंटीलिया

समय की अदालत में
सदी का सर्वाधिक महत्वपूर्ण मुकदमा
आखिरी पेशी
सजा मुक़र्रर होनी है ,
मुकदमा
यूनियन ऑफ इंडिया
बनाम
एंटीलिया
सिर्फ
घडी की टिक टिक टिक
कैमरों की क्लिक क्लिक
एंटीलियाआआआ
हाज़िर हो....!
हाज़िर हूँ मी लार्ड ..
एंटीलिया !
अब जबकि, तुम पर आयद सारे आरोप
साबित हो चुके हैं
सजा सुनाये जाने से पहले
तुम्हे कुछ कहना है
जी ,जी हुज़ूर ,
तो ,हलफ उठाओ !
मैं एंटीलिया...
इतिहास को साक्षी मान कर कहती हूँ
कि
मैं अपने पूरे होशो हवास में ,
जो कहूँगी ,
सच कहूँगी
सच के सिवा कुछ नहीं कहूँगी
मैं एंटीलिया ,हाल मुकाम ...
बयान करती हूँ ,
यह कि ,
मैं पूँजी के वैभव की
ऐश्वर्य की प्रतीक हूँ
उसके गुनाहेअज़ीम में
बाकायदा शरीक हूँ
मैं सदी के सबसे
दौलतमंद की ख्वाहिश हू
मैं किसी बेगैरत के
घमंड की नुमाइश हूँ
मैं दौलत की मशक्कत से
आजमायी हुई साज़िश हूँ
मै किसी दौलतमंद की
अजीमोशान रिहाईश हूँ
मैं दौलत की बुलंदी का
जिन्दा मुकाम हूँ
तमाम लूट ओ खसोट का
हलफिया बयान हूँ
मैं आवारा दौलत का
लहराता हुआ परचम हूँ
मैं हवस की किताब में
सोने का कलम हूँ
मैं मुल्क के सीने में दफ्न
खंज़र की मूठ हूँ
मै इस जुल्मी निजाम का
सबसे, सफ़ेद झूठ हूँ
मैं तमाम शहरियों की
हसरत हूँ , टकटकी हूँ
कितने ही मेहनतकशों की
कुर्बान जिंदगी हूँ
मैं दिलफरेब बहुत हूँ
लुभाती भी बहुत हूँ
सपनो में उनके आ के
सताती भी बहुत हूँ
मैं जागता सपना हूँ,
उनसे ,भागता सपना हूँ
प्रबंधन के विशेषज्ञों की
कोरी प्रवंचना हूँ
मैं ही, आज ताकत
सत्ता हूँ ,प्रतिष्ठा हूँ ,
इस जुल्मी हुकूमत की
नायाब सफलता हूँ
मैं कोरी औ खोखली
भावुकता को नहीं जानती
मैं सम्वेदना हो ,शील हो ,
किसी को नहीं पहचानती
मूल्यों के मकडजाल से
कब की उबर चुकी हूँ
ऐसे तमाम रास्तों से
निःसंकोच गुजर चुकी हूँ
मैं कंधे पर पाँव रख
बढ़ जाना जानती हूँ
हुक्काम की दराज में
दुबक जाना भी जानती हूँ
झगड़ना भी जानती हूँ
अकडना भी जानती हूँ
आये कोई मौका तो
पकडना भी जानती हूँ
समझौता भी जानती हूँ ,
कुचलना भी जानती हूँ
मचलना भी जानती हूँ ,
छलना भी जानतीहूँ
आघात जानती हूँ
प्रतिघात जानती हूँ
मासूम मुफ़लिसी से
विश्वासघात जानती हूँ
शातिरओमक्कार हूँ
मैं कौम की गद्दार हूँ,
मतलब की यार हूँ,
मैं कुशल फनकार हूँ
मंच से कभी तो
नेपथ्य से कभी
विभ्रम से कभी तो
असत्य से कभी
लुब्ध कर सकती हूँ ,
मुग्ध कर सकती हू
भूकम्प से बच सकती हूँ
तूफ़ान से निकल सकती हूँ
बमों की बौछार हो या ,
गोलियों की मार हो
सब को झेल सकती हू
पीछे ढकेल सकती हूँ
रेशमी अहसास हो
भोले भले जज़्बात हो
ऐसे खिलौनों को तो
चुटकी में तोड़ सकती हूँ
मै निष्ठुर हूँ, निर्लज्ज हूँ
निरंकुश हूँ ,नृशंस हूँ
मैं जज्बाती नहीं
किसी की साथी नहीं
मैं..... एंटीलिया
सिर्फ खुद से प्यार करती हूँ
सिर्फ खुद से प्यार करती हूँ
बयान पूरा हुआ ...मी लार्ड !
इस समय की अदालत में
इतिहास को साक्षी मान ,
दुरुस्त होशोहवास में
बगैर जोरोजबर
दस्तखत बना रही हूँ
ताकि सनद रहे ........
एंटी...लिया

सोमवार, 23 जनवरी 2012

विद्ध्वंस की दया पर ?

तुम्हारी भुजाओं की पेशियों से
कहीं मजबूत हैं
मेरी कोख की पेशियाँ ,
बस इन्हें
तोड़ना और मिटाना भर नहीं आता
भुजाओं की तरह ,
क्या महज इस कारण से कि-
इसकी योग्यता सिर्फ सिरजना है
कोख को भुजाओं के आधीन
रहना होगा
सहना होगा शासन ?
यूँ कब तक रहेगा आश्रित
निर्माण विद्ध्वंस की दया पर ?

रविवार, 22 जनवरी 2012

पढ़ते-पढ़ते: अरुंधती राय : मुकेश अम्बानी पूंजीवाद के सबसे बड़े ...

पढ़ते-पढ़ते: अरुंधती राय : मुकेश अम्बानी पूंजीवाद के सबसे बड़े ...: मुम्बई के सेंट जेवियर्स कालेज में अरुंधती राय ने कल अनुराधा गांधी स्मृति व्याख्यान दिया. समाचार पत्रों की कतरनों को संकलित करके उनकी ख़ास-ख़...

रविवार, 15 जनवरी 2012

voyager: ब्रह्मांड की उत्पत्ति कैसे हुई – प्रो. हॉकिंग

voyager: ब्रह्मांड की उत्पत्ति कैसे हुई – प्रो. हॉकिंग: हम अपने पाठकों के लिए एक और विचारोत्तेजक सामग्री लेकर आए हैं। इस बार प्रस्तुत है, प्रो. स्टीफन हॉकिंग के मशहूर व्याख्यान ‘ ओरिजिन आफ यूनिवर्...