धूमिल आकाश पर
शाम जब इधर-उधर
लाल लाल खून फ़ैल गया था ,
जान लिया था हमने
कि रात के काले बिलार ने
आज फिर अपना शिकार कर लिया है !
सहमें सिकुड़ रहे दिन औ' फूल रही रातें !
डरता हूँ
दिन न कहीं रह जाएँ
हल्की -सी कौंध भर
वह भी यदा-कदा !!
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