नासेह जी शरमाए तो।
देख मुझे रोए न मगर,
मुँह से निकली हाए तो।
मुब्हम मुब्हम कुछ बोले,
राज न दे, भरमाए तो।
अबके होश सम्हालेँगे,
घूँघट वो सरकाए तो।
ख़ुद को मसीही आ जाए,
मर्ज़ अगर बढ़ जाए तो।
बोलो किसे सताओगे,
'मिसिर' अगर मर जाए तो।
तुम्हारी विशेषताएँ ही
तुम्हारी सीमाएँ
बन गई हैँ।
तुम्हारे ही रंगोँ ने
घेर रखा है
तुम्हारा आकाश,
और तुम्हारी गोल-गोल
चक्करदार उड़ानोँ ने
तुम्हारे
पर कतर दिए हैँ।
जबकि तुम
ओ,ज़िन्दगी!
बहती ही इसलिए हो
कि तुम
किनारोँ के बीच
रहना नहीँ चाहती।
जब जब किनारोँ ने
तुम्हेँ दबाया है
तुमने अपना वजूद
उनसे टकराया है
अक्सर ही तुमने उन्हेँ
अपनी आलोचनाओँ से
काटा है कुतरा है,
अपनी सहायक नदियोँ का
समर्थन-जल पाकर
जब जब तुम बढ़ी हो
तुमने उन्हेँ तोड़ा है
या जब तुम
क्षीण हुई हो
उनसे मुँह मोड़ा है
उन्हेँ छोड़ा है,
क्योँकि तुमने
स्वयं को सदा
एक असीम से जोड़ा है,
जहाँ कोई
किनारा नही
और जो तुम्हेँ
विशिष्ट नहीँ रहने देता
साधारण कर देता है
स्वयं तुम्हारा
आवरण बनकर
तुम्हेँ निरावरण
कर देता है
ताकि तुम दे सको
अपना सर्वस्व
और मुक्त हो सको
निजता के भार से।
न किसी का है न मेरा
न ज़माना तेरा,
फिर दिले-ख़स्ता कहाँ
होगा ठिकाना तेरा।
बर्क़वश आए निगाहोँ मेँ
चमक छोड़ गए,
ऐसे आने से तो बेहतर था
न आना तेरा।
कर लिया चाक गरेबान
ख़ाक मुँह पे मली,
कितना सजधज के चला
आज दिवाना तेरा।
शर्त है अहदे-वस्ल मैँ
ही ना रहूँ मौजूद,
क्या नहीँ है ये न मिलने
का बहाना तेरा।
'मिसिर' शहर मेँ तेरे
बुलबुलेँ भी क्या करतीँ,
अब तो सुनता ही नहीँ
कोई तराना तेरा।