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शुक्रवार, 17 सितंबर 2010

रोशनी की यह गली बहुत तंग है



रोशनी की यह गली बहुत तंग है ,
हम यहाँ से होकर जो जायेंगे -
अंधेरों में सन जायेंगे !
हमने अपनी तड़प से कई बार पूछा -
कि तू क्यों उन अंधेरी ,गुमनाम गलियों की ,
रोज़ जीती और मरती कथा कहती आ रही है,
क्यों मुझे चैन से जीने नहीं देती,
क्यों सता रही है ,
यह रोशनी,यह रौनक ,यह रंग -
तुझे क्यों नहीं भाता ,
क्यों तुझे भी राजपथ पर चलना नहीं आता,
मगर कोई जवाब नहीं आया -
सिवा इसके कि भीतर
कुछ तड़का, कुछ टूटा ,
कुछ धसक गया !!
कुछ आवाज़ों के शब्द नहीं ,सिर्फ अर्थ होते हैं !!

गुरुवार, 2 सितंबर 2010

हासिल-ए-सौदा-ए-खाम








क्या जाने इस तड़प का कुछ होगा असर भी,
मझधार में ही डूब न जाये ये लहर भी !


साहिल से लग के बैठा हूँ क्या जानिए कब वो,
उस पार से आवाज़ दे 'अब आओ इधर भी '!


यूं ही नहीं मिला है इन्हें ताब-ए-नज्ज़ारा ,
देखी है इन आँखों ने क़यामत की सहर भी !


दिल से ही निकल आएंगे हर बात के मानी ,
कुछ देर को रक्खो ज़रा तुम दिल पे नज़र भी !


फिर हासिल-ए-सौदा-ए-खाम ये रहा 'मिसिर',
दिल भी गया,सर भी गया और अबके जिगर भी !

अब जो लाये हो तो ये चाँद












अब जो लाये हो तो ये चाँद -
कहाँ रक्खूँगी ?


भर चुका दिल का ये संदूक ,
गम-ए-फुरक़त से !


यूं भी छोटा - सा है ,
थोड़े में ही भर जाता है !


फिर जो लाते तो तब लाते इसे 
जब चाहा था !


तब ये छोटा-सा था 
संदूक में जगह भी थी !


अब जो लाये हो तो 
कितना बड़ा कर लाये हो !


चहरे की सलवटें ज़रा देखो !!
जैसे हर तह में कोई -हवस छुपा रक्खी हो ??



वैसे भी मांगे मिली चीज़ 
मरी होती है!


और मेरे गम अभी जिंदा हैं ,
जवाँ गुल की तरह !


फैलनें लग गयी है 
जिनकी महक बस्ती में ,


हाँ !! ये तुम तक भी गयी होगी 
तभी आये हो!


और दिखावे की लगावट -
का चाँद लाये हो !


जाओ ले जाओ -
अब कोई जगह खाली नहीं !


भर चूका दिल का ये संदूक -
गमें-फुरक़त से!!