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मंगलवार, 23 मार्च 2010

जब हया ही तेरी


जब हया ही तेरी
फ़ितरत ठहरी,
नक़्शबंदी तो
मुसीबत ठहरी।

तू हमेशा नयी
दिखती है मगर,
ये पुरानी तेरी
आदत ठहरी।

बाम पर तुझको
नहीँ आना था,
फिर बुलाना तो
शरारत ठहरी।

वस्ल मेँ होश मगर
किसको था,
हिज़्र ठहरा तो
मुहब्बत ठहरी।

इक ख़ला तक तो
आ गए हो 'मिसिर',
इसके आगे तेरी
किस्मत ठहरी।

बुधवार, 17 मार्च 2010

बेचूनोचरा

कुछ नहीँ छोड़ा बीनाई मेँ,
ले लिया सब मुँह दिखाई मेँ।

सुर्ख़रू होकर ढला सूरज,
शब की काली रोशनाई मेँ।

कासा-ए-माज़ी गिरा सर से,
जीस्त पँहुची नारसाई मेँ।

'मिसिर' बाकी दिन कटेँगे क्या,
चौखटोँ की शनासाई मेँ?

होके अब बेज़ार बेचूनोचरा,
खुश रहो बेदस्तोपाई मेँ। 


 बीनाई= दृष्टी, कासा-ए-माज़ी= अतीत का घाट , जीस्त= अस्तित्व , नारसाई= पहुँच  के  परे , शनासाई= परिचय , बेचूनोचरा=मौन और  बिला शिकायत, बेदस्तोपाई= आश्रयहीनता

मंगलवार, 16 मार्च 2010

सहरे-सिद्करू



हो सका मुझसे न जो
आके उसे तू करदे,
सुब्हे-काजिब को मिटा
सहरे-सिद्करू करदे।

क़ैदे-कोहसार मेँ कबसे
रुका पड़ा हूँ मैँ,
खोल कर राह मेरी
मुझको आबजू करदे।

ख़ुद से कुछ हटके चलूँ
ख़ुद ही का निगराँ बनकर,
कोई दिन के लिए मेरी
अना को 'तू' करदे।

रूहे-गुल की 'मिसिर'
कीमत नहीँ ज़माने मेँ,
ऐसा कर अबसे मुझे
उसकी रंगो-बू करदे।

अब तो ये दर्द ही पहचान
बन गया है मेरी,
मुझको डर है न मेरा
जख़्म तू रफ़ू करदे। 



रविवार, 7 मार्च 2010

एक अनुभूति


साँझ-
कोई लाल चूनर ओढ़
दुलहिन बिदा हो
चल दी अजाने देस.....

धूल-धूसित व्योम
मैला हो चला
द्रष्य ऊँघे
परस डूबे
स्वर कराहे और फिर
चुप हो गए,

नदी धीरे खिलखिला बोली -
राही ! और कर ले बसेरा एक रात,
फिर न छल होगा
न कल
कल
कल ....

कोशिश



चोटी से
रोटी-सा
अटका है
चांद
लहरोँ के चूहे
नीचे
कुतरते
चट्टान....


अलग अलग

अलग अलग रंगो की
झण्डियोँ मेँ बँट रही
एक ही अफीम-
साम्प्रदायिकता की,
और वह सच की
गुनगुनी सुनहली धूप--
जो  हरीतिमा जगाती है
पत्ते जिलाती है
फूल खिलाती है
अरे आज छन छन कर आती है
राह मेँ अडी है
घनी और ठंडी एक नीम-
राजसत्ता की।

ठहरा हुआ दरिया

 
किसी बर्कवश की हवस मेँ हूँ,
कि मैँ आशियाँ के कफस मे हूँ।
ठहरा हुआ दरिया हूँ मैँ,
अभी साहिलोँ की बहस मेँ हूँ।
नादाँ नजर नहीँ मानती,
कि मैँ इन्तिजार-ए-अबस मेँ हूँ।
हूँ शिकश्त -लब और यहाँ कि जब,
मैँ अपनी गुफ्त-ए-अखस मेँ हूँ।

बुधवार, 3 मार्च 2010

'वो'


दिन तो
पहले से ही
मेरा ढल चुका
रात के ये चाँद तारे
कितने दिन ?
जानता हूँ एक दिन
'वो' आएगा
आसमाँ की
काली चादर मेँ सभी
चाँद तारे
बाँधकर ले जाएगा।
क्या करेगा मेरा ?
'वो' क्या समझ लेगा
मुझको कोई
संग -ओ -ख़िश्त
और छोड़ देगा
या
मुझे भी साथ मेँ
ले जाएगा ?
जाने क्या कीमत
लगाएगा मेरी ?
अपना संग -ए -पा
समझ कर
रख ले 'वो'
काश
ऐसा हो। 

ये परिन्दे


ये परिन्दे कतार मेँ बैठे
तीर के इन्तजार मेँ बैठे।

आशियाने हथेलियोँ पे लिए
बर्क की रहगुजार मेँ बैठे।

एक जब गिर गया थपेडोँ मेँ
डर के हम तीन - चार मेँ बैठे।

खूब तुमने मियाँ तरक्की की
घर से निकले बाजार मेँ बैठे।

हैँ बहुत इज्तिराब क्यूँ कोई
इस दिले-बेकरार मेँ बैठे।


सूर्योदय

भोर
पूरब के क्षितिज का छोर
शिव का शान्त श्यामल भाल
मेघ-से बिखरे जटा के बाल
कण्ठ मेँ गिरता नदी का स्याह जल-
मानवोँ की पाप-विष-धारा
पीने से न जिसका अन्त होता देख
चढ चली माथे पर शिव के क्रोध की लाली
खुली फिर पलक धीरे से
अंगारे-सी दहकती  तृतीया आँख ने तब प्रलय बरसाई।

सोमवार, 1 मार्च 2010

चिड़िया रानी

 
आज किधर से सूरज निकला,
आज किधर की हवा चली |
चिड़िया रानी कहाँ रहीं थीं ,
बहुत दिनों के बाद मिली |
पहले तो घर के आँगन में ,
खूब धमाल मचाती थीं |
दाना चुगतीं, तिनकें चुनतीं ,
अपना नीड़ बनातीं थीं |
फिर क्या हुआ अचानक तुमने ,
मिलना जुलना छोड़ दिया ?
हमसे रिश्ता तोड़ के बोलो
किनसे रिश्ता जोड़ लिया |
चिड़िया बोली, "बिटिया रानी ,
ऐसी कोई बात नहीं |
प्यार करूँ और निभा ना पाऊं ,
ऐसी मेरी जात नहीं |
सारे पेड़ कट गए फिर ,
बोलो कैसे रह पाती मैं |
कैसे रैन बसेरा करती ,
किस पर नीड़ बनती मैं |
दूर घने जंगल में रहने ,
निकल गयी मैं क्या करती |
आखिर कुछ तो जीने का जरिया,
करती या, फिर मरती |
तुमसे बिछड़ कर दुःख ,
मुझे भी हुआ बहुत पर जाने दो |
सुना है, तुमने अबके बरस ,
सोचा है पेड़ लगाने को |"




तराश ले....


तराश ले
मुझे शिल्पी !
तेरे ही रुप के
आभास - सी
अनगढ - सी
तेरी ही छवि हूँ मैँ भी-
तेरी ओर आता
हाँफता
गिरता
फिर उठता.....
मुझे अपने
नील कालजयी वक्ष मेँ
समा जाने दे,
उसकी
स्रजनरता आग मेँ
जल जाने दे,
राख हो जाने दे,
ओ शिल्पी !?

अहंकार

देखते देखते
मेरा अहंकार
इतना बड़ा हो गया कि एक दिन
मेरी छाती पर अपने
पंजे रखकर
खड़ा हो गया ,
इतना क़रीब कि मैँ
उसे इन चर्मचक्षुओँ से
देख सकता था,
उसकी लार टपकाती
लपलपाती ज़बान
मेरे चेहरे पर मेरी
आँखेँ टटोल रही थी
जैसे उनमेँ कोई
अँधियारा सा
घोल रही थी,
इससे पहले कि वह
मुझे फिर से
अंधा करदे -
मैँने ख़ुद को उससे
नोँच लिया
उसे गर्दन से
दबोच लिया
और द्वार पर
जंजीर से बाँध आया
मैँने सोँचा -
कुछ दिन इसे
जाचूँगा परखूँगा
इसे न्यूनतम ख़ूराक
पर ही रखूँगा, इससे-
भूतलवासिनी अपनी
दीनता की
दूसरोँ के अहम् से
रक्षा का काम लूँगा
निश्चिन्त हो
थोड़ा आराम लूँगा
उदात्त हो छत पर
निकल जाउँगा,जहाँ -
ताज़ी हवा है
खुला खुला आकाश
चंद्र है सविता है
गीत है कविता है......

बाहर उसे बाँध
भीतर जब आया
उसे पहले से
मौजूद पाया
वह मेरी कापी मेँ
मेरी कविता
पढ़ रहा था
उसे खोल रहा था
फैला रहा था और
बार बार उस पर
चढ़ रहा था
मुझे आया देख
घबड़ाया
कुछ हड़बड़ाया
और यह देख
हाय मेरा सीना
दरक गया
जब वह
कविता के नीचे लिखे
मेरे नाम ही के
पीछे सरक गया ।

मित्र


नदी की एक सी गहराईयोँ में हम
कमर तक जल मग्न
खड़े हैं नग्न ।
भिन्न हैं तन
किन्तु नंगापन हमारा एक जैसा है ।
हमारे उदर ,कटि जँघायेँ जल पोषित हैं
लेकिन हमारे वक्ष ,ग्रीवा और मस्तक हवाओं से पुष्ट होते हैं ।

हमारे वक्ष सम्मुख और निर्मल हैं ,
पीठ पर लेकिन विगत की मैल फैली है ,
कठिन काले प्रस्तर-स्तर ढीठ,

धारणाओं, आग्रहोँ, रुचियोँ-अरुचियोँ के
दबोचे हैं समूची पीठ ।
कलुषता की हठीली इन्हीं पर्तोँ मेँ कहीँ

दब के फासिल हो गए हैं पंख अपने ।
मित्र ,आओ हम समूची इस मलिनता को
परस्पर एक दूजे पर चलाकर हाथ तेजी से
रगड़ कर साफ कर डालें,
भले ही दर्द हो कितना
उघाड़ेँ स्याह पर्तोँ को
हमारे पंख शायद फिर हमेँ मिल जाएँ।