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सोमवार, 1 मार्च 2010

मित्र


नदी की एक सी गहराईयोँ में हम
कमर तक जल मग्न
खड़े हैं नग्न ।
भिन्न हैं तन
किन्तु नंगापन हमारा एक जैसा है ।
हमारे उदर ,कटि जँघायेँ जल पोषित हैं
लेकिन हमारे वक्ष ,ग्रीवा और मस्तक हवाओं से पुष्ट होते हैं ।

हमारे वक्ष सम्मुख और निर्मल हैं ,
पीठ पर लेकिन विगत की मैल फैली है ,
कठिन काले प्रस्तर-स्तर ढीठ,

धारणाओं, आग्रहोँ, रुचियोँ-अरुचियोँ के
दबोचे हैं समूची पीठ ।
कलुषता की हठीली इन्हीं पर्तोँ मेँ कहीँ

दब के फासिल हो गए हैं पंख अपने ।
मित्र ,आओ हम समूची इस मलिनता को
परस्पर एक दूजे पर चलाकर हाथ तेजी से
रगड़ कर साफ कर डालें,
भले ही दर्द हो कितना
उघाड़ेँ स्याह पर्तोँ को
हमारे पंख शायद फिर हमेँ मिल जाएँ।