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सोमवार, 1 मार्च 2010

अहंकार

देखते देखते
मेरा अहंकार
इतना बड़ा हो गया कि एक दिन
मेरी छाती पर अपने
पंजे रखकर
खड़ा हो गया ,
इतना क़रीब कि मैँ
उसे इन चर्मचक्षुओँ से
देख सकता था,
उसकी लार टपकाती
लपलपाती ज़बान
मेरे चेहरे पर मेरी
आँखेँ टटोल रही थी
जैसे उनमेँ कोई
अँधियारा सा
घोल रही थी,
इससे पहले कि वह
मुझे फिर से
अंधा करदे -
मैँने ख़ुद को उससे
नोँच लिया
उसे गर्दन से
दबोच लिया
और द्वार पर
जंजीर से बाँध आया
मैँने सोँचा -
कुछ दिन इसे
जाचूँगा परखूँगा
इसे न्यूनतम ख़ूराक
पर ही रखूँगा, इससे-
भूतलवासिनी अपनी
दीनता की
दूसरोँ के अहम् से
रक्षा का काम लूँगा
निश्चिन्त हो
थोड़ा आराम लूँगा
उदात्त हो छत पर
निकल जाउँगा,जहाँ -
ताज़ी हवा है
खुला खुला आकाश
चंद्र है सविता है
गीत है कविता है......

बाहर उसे बाँध
भीतर जब आया
उसे पहले से
मौजूद पाया
वह मेरी कापी मेँ
मेरी कविता
पढ़ रहा था
उसे खोल रहा था
फैला रहा था और
बार बार उस पर
चढ़ रहा था
मुझे आया देख
घबड़ाया
कुछ हड़बड़ाया
और यह देख
हाय मेरा सीना
दरक गया
जब वह
कविता के नीचे लिखे
मेरे नाम ही के
पीछे सरक गया ।