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मंगलवार, 20 सितंबर 2011

गुलदान ,

रंगीन काँच का नाज़ुक-सा गुलदान ,
जो तुम यहाँ
मेरे सपनों के ऊपर रख गयी थीं
टूटने के डर से
मैंने उसे हाथ नहीं लगाया ,
न ही किसी सपने को
उसके नीचे से खींचा !
फिर एक दिन तुमने ही आकर
उसे तोड़ दिया ,
मैंने फिर भी
उसे हाथ नहीं लगाया
बस अपने सपने
उसके टुकड़ों पर रख दिए !

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