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शनिवार, 15 मई 2010

ख़ौफ मेँ मत जी 'मिसिर'

दास्ताँ तो एक ही है
फर्क है उन्वान मेँ,
बस मुहब्बत ही लिखा
गीता मेँ और कुरआन मेँ।

हाँ, सियासी तर्जुमानोँ
मेँ फर्क़ मिल जाएगा,
फर्क़ वरना कुछ नहीँ
इंसान और इंसान मेँ।

एक ही मक़सद तुम्हारा
माल कैसे लूट लेँ,
जाके तो देखो किसी
मंदिर मेँ या दूकान मेँ।

बड़ी मछली का निवाला
छोटी मछली है मगर,
फर्क़ क्या कुछ भी नहीँ
है जानवर इंसान मेँ।

गैर की बंदूक की गोली
न बन ऐ हमवतन,
घर का आंगन मत बदल
तू जंग के मैदान मेँ।

पुराने टूटे हुए फानूस
से बाहर निकल,
ख़ौफ मेँ मत जी 'मिसिर'
रख दे दिया तूफान मेँ।

गुरुवार, 29 अप्रैल 2010

'मिसिर' अगर मर जाए तो


देर से आए आए तो,
नासेह जी शरमाए तो।

देख मुझे रोए न मगर,
मुँह से निकली हाए तो।

मुब्हम मुब्हम कुछ बोले,
राज न दे, भरमाए तो।

अबके होश सम्हालेँगे,
घूँघट वो सरकाए तो।

ख़ुद को मसीही आ जाए,
मर्ज़ अगर बढ़ जाए तो।

बोलो किसे सताओगे,
'मिसिर' अगर मर जाए तो।

मंगलवार, 27 अप्रैल 2010

तुम्हारे ही रंगोँ ने


तुम्हारी विशेषताएँ ही
तुम्हारी सीमाएँ
बन गई हैँ।


तुम्हारे ही रंगोँ ने
घेर रखा है
तुम्हारा आकाश,


और तुम्हारी गोल-गोल
चक्करदार उड़ानोँ ने
तुम्हारे
पर कतर दिए हैँ।


जबकि तुम
ओ,ज़िन्दगी!
बहती ही इसलिए हो
कि तुम
किनारोँ के बीच
रहना नहीँ चाहती।


जब जब किनारोँ ने
तुम्हेँ दबाया है
तुमने अपना वजूद
उनसे टकराया है


अक्सर ही तुमने उन्हेँ
अपनी आलोचनाओँ से
काटा है कुतरा है,
अपनी सहायक नदियोँ  का
 समर्थन-जल पाकर
जब जब तुम बढ़ी हो
तुमने उन्हेँ तोड़ा है
या जब तुम
क्षीण हुई हो
उनसे मुँह मोड़ा है
उन्हेँ छोड़ा है,
क्योँकि तुमने
स्वयं को सदा
 एक असीम से जोड़ा है,
जहाँ कोई
किनारा नही
और जो तुम्हेँ
विशिष्ट नहीँ रहने देता
साधारण कर देता है
स्वयं तुम्हारा
आवरण बनकर
तुम्हेँ निरावरण
कर देता है
ताकि तुम दे सको
अपना सर्वस्व
और मुक्त हो सको
निजता के भार से।

सोमवार, 12 अप्रैल 2010

'मिसिर' शहर मेँ तेरे



न किसी का है न मेरा
न ज़माना तेरा,
फिर दिले-ख़स्ता कहाँ
होगा ठिकाना तेरा।

बर्क़वश आए निगाहोँ मेँ
चमक छोड़ गए,
ऐसे आने से तो बेहतर था
न आना तेरा।

कर लिया चाक गरेबान
ख़ाक मुँह पे मली,
कितना सजधज के चला
आज दिवाना तेरा।

शर्त है अहदे-वस्ल मैँ
ही ना रहूँ मौजूद,
क्या नहीँ है ये न मिलने
का बहाना तेरा।

'मिसिर' शहर मेँ तेरे
बुलबुलेँ भी क्या करतीँ,
अब तो सुनता ही नहीँ
कोई तराना तेरा।

मंगलवार, 23 मार्च 2010

जब हया ही तेरी


जब हया ही तेरी
फ़ितरत ठहरी,
नक़्शबंदी तो
मुसीबत ठहरी।

तू हमेशा नयी
दिखती है मगर,
ये पुरानी तेरी
आदत ठहरी।

बाम पर तुझको
नहीँ आना था,
फिर बुलाना तो
शरारत ठहरी।

वस्ल मेँ होश मगर
किसको था,
हिज़्र ठहरा तो
मुहब्बत ठहरी।

इक ख़ला तक तो
आ गए हो 'मिसिर',
इसके आगे तेरी
किस्मत ठहरी।

बुधवार, 17 मार्च 2010

बेचूनोचरा

कुछ नहीँ छोड़ा बीनाई मेँ,
ले लिया सब मुँह दिखाई मेँ।

सुर्ख़रू होकर ढला सूरज,
शब की काली रोशनाई मेँ।

कासा-ए-माज़ी गिरा सर से,
जीस्त पँहुची नारसाई मेँ।

'मिसिर' बाकी दिन कटेँगे क्या,
चौखटोँ की शनासाई मेँ?

होके अब बेज़ार बेचूनोचरा,
खुश रहो बेदस्तोपाई मेँ। 


 बीनाई= दृष्टी, कासा-ए-माज़ी= अतीत का घाट , जीस्त= अस्तित्व , नारसाई= पहुँच  के  परे , शनासाई= परिचय , बेचूनोचरा=मौन और  बिला शिकायत, बेदस्तोपाई= आश्रयहीनता

मंगलवार, 16 मार्च 2010

सहरे-सिद्करू



हो सका मुझसे न जो
आके उसे तू करदे,
सुब्हे-काजिब को मिटा
सहरे-सिद्करू करदे।

क़ैदे-कोहसार मेँ कबसे
रुका पड़ा हूँ मैँ,
खोल कर राह मेरी
मुझको आबजू करदे।

ख़ुद से कुछ हटके चलूँ
ख़ुद ही का निगराँ बनकर,
कोई दिन के लिए मेरी
अना को 'तू' करदे।

रूहे-गुल की 'मिसिर'
कीमत नहीँ ज़माने मेँ,
ऐसा कर अबसे मुझे
उसकी रंगो-बू करदे।

अब तो ये दर्द ही पहचान
बन गया है मेरी,
मुझको डर है न मेरा
जख़्म तू रफ़ू करदे।