LATEST:


विजेट आपके ब्लॉग पर

सोमवार, 21 जनवरी 2013

चिड़िया


अब वह चिड़िया मछली बन गई है ! 
कल तक जो  
अचानक फुर्र से आकर 
मेरी जाँघों या कन्धों पर बैठ जाया करती थी 
और एक सुन्दर ,सुकोमल ,रंगीन पंख 
मेरे लिए छोड़ जाया करती थी 
ढेर सारे  पंख हो गए थे मेरे पास 
जिन्हें मैं सबको दिखाता 
उनकी  आँखों में पंखों के लिए प्रशंसा होती 
और मेरे लिए ईर्ष्या के काँटे 
लेकिन वे काँटे मुझ तक आते-आते
फूल बन जाते और मुझे महका देते 
मेरे लिए अब वह चिड़िया सिर्फ पंखों का गुच्छा थी 
जिन्हें मैं  पाना चाहता था  
एक दिन वह मेरी इच्छा भांप गई और चली गई 
जाते वक़्त उसने मुझसे कहा था--
"हजारो साल की विकास-यात्रा तय करके
मैं चिड़िया बनी थी 
तुम्हारी हवस ने मुझे फिर से मछली बना दिया है 
अब तुम तक
मैं उड़ कर नहीं  पहुँच पाउंगी 
हाँ,तुम मुझे अपनी बंसी में फंसा सकते हो 
लेकिन तब 
मैं बाहर आते ही  मर जाउंगी !

मैं पुरुष


मैं पुरुष हूँ 
और यह मेरा चुनाव नहीं ,
मुझे इसका कोई पछतावा नहीं 
और न ही कोई शर्मिंदगी 
मैंने तो नहीं दिखाई कभी 
किसी स्त्री के प्रति दरिंदगी 
न ही अपने बाहुबल से रौंदा 
उसकी कोमलता को 
बल्कि उसे संभाला है, 
सहेजा  है ,संवारा है ,
प्रेम किया है उसे !
हाँ ,मैं पुरुष हूँ 
देह से और  मानसिकता से 
पुरुष  होना स्त्री होने से  कम भव्य है क्या ? 
पौरुष को पशुता का पर्याय मत कहो 
पशुओं में नर  ही नहीं 
मादाएं भी होती हैं !

जरूरी चीजें


जरूरी चीजें हमलावर होती हैं !

वे अपनी अपरिहार्यता का पाश लिए 
हमारी तरफ बढ़ती हैं 
और हमें जकड़ लेती हैं !

बचाव में हमें करना होता है 
उन्हें निरस्त्र 
या निरंतर तिरस्कार से
उनकी धार को कुंद !

वे हमारे सिर पर सवार न हो जाएँ 
हम उन्हें जमीन पर 
अपने बराबर रखने  की जगह 
एक गहरे गड्ढे में रखते हैं 

अगर वह चीज जानदार हो 
मसलन वह एक औरत हो 
तो हम गड्ढा 
उसकी पहुँच से अधिक गहरा  रखते हैं !

फिर भी हमारे तमाम इंतजामों के बा-वजूद 
अगर उन्हें वहाँ  रोका न जा सके 
और वे खुद-ब-खुद बाहर  आने लगें 
तो हम उनकी मदद में 
सबसे आगे रहेंगे 
उन्हें बाहर निकालेंगे 
लेकिन जमीन पर अपने बराबर नहीं 
बल्कि आसमान पर बिठा देंगे !

क्षणिकाएं



१--
छाती तक चढ़ी
मँहगाई की नदी का पूरा दबाव है
आदमी पर
कि वह मछली बन जाए
और सिर्फ चारा देखे
चारे में छिपा काँटा न देख पाए !
२--
मंहगाई ने
चौकी को और छोटा कर दिया ,
जो रिश्ते किनारे बैठे थे
जमीन पर गिर पड़े !

अस्तित्व:एक नदी


वह मान बैठी है --
अस्तित्व ही उसकी व्याधि है ,

जिससे मुक्ति के लिए 
ढलानों की तलाश में बल खाती हुई 
वह अपना जिस्म तोड़ती रहती है, 

वह हर गड्ढे में उतर कर नापती  है 
अपने समां जाने भर की जगह,

वह हर उस नदी के साथ हो लेती है  
जिसके पास किसी समंदर  का पता है ,

वह नहीं जानती 
कि पीछे आने वाला पानी भी 
दरअसल वही है ,

वह कभी नहीं चुकेगी !

सर्जरी


इतना भर गया था फ़ोड़ा
कि कभी भी लाल पड़ सकता था ।
पहले चीरे से
खूब सारा मवाद निकला
गाढ़ा और गरम ।
दूसरे चीरे से
थोड़ा बदबूदार पानी और ।
सर्जन ने रिपोर्ट लगा दी है -
" दुबारा अभी
इतनी जल्दी नहीं भरेगा फोड़ा ,
खतरा टल गया है फिलहाल ,
बिल साथ लगा रहा हूँ  "।
बच्चा अब मोबाइल पर गाने सुन रहा है ।

रविवार, 2 दिसंबर 2012

जनपक्ष: भारत में विज्ञान का इतिहास और भौतिकवाद

जनपक्ष: भारत में विज्ञान का इतिहास और भौतिकवाद: इधर मार्क्सवाद सम्बन्धी लेखमाला के तहत दर्शन से आरम्भ करने के कारण कई लोगों को भ्रम हुआ कि मैं भारतीय दर्शन पर कोई लेखमाला लिख रहा ह...